जा पाते तो!
पत्तियां सब छोड़ कर चली गईं
जा पाते तो पेड़ भी जाते
उनके साथ
उनकी अंगुली पकड़े।
वे वहीं रुके रहे कि अगर बिछुड़ी हुई अनेक पत्तियों में से कोई लौट आई
अपनी टहनियों और डालों को खोजती तो
उसका क्या होगा?
अगर खो गईं परछाइयां लौट आईं तो
उन को खड़े होने के लिए छाया कौन देगा
यह सोच कर वर्षों वहीं खड़े रहे निपात पेड़!
कई बार तो वे पेड़ भूल गए कि
वे एक चौराहे पर खड़े हैं
वे यह भी भूल गए कि लोगों को उनका वहां खड़ा रहना सहन नहीं हो रहा
लेकिन छाल छिल जाने पर भी
ढीठ खड़े रहे
डाल कट जाने पर भी
काठ हो कर भी
खड़े रहे।
वे खड़े रहे कि
अगर अपनी तरंगों को खोजती वापस
आती है हवा
तो वह किसे हिला कर अपना आना बताएगी
वह किस कोटर में अपना डेरा जमाएगी?
पेड़ तब जाते हैं कहीं
जब उनसे पृथ्वी की उदासी
बादलों की बेरुखी
और तारों का शोक सहन नहीं होता।
एक चूहा रहता है जर्जर जड़ों में
वह निराश्रित हो जाएगा
पेड़ के चले जाने पर
यह सोच कर युगों तक
खड़े रहे पेड़ एक जगह
चूहे के पहले जड़ में रहता था एक नाग
उसके पहले एक नेवले का पता थे पेड़
उस नाग और चूहे के साथ एक बगुले का स्थाई पता थी उनकी जड़।
पेड़ इसलिए भी खड़े रहे कि
उनके कहीं और चले जाने से चीटियां भूल जाएंगी घर की राह
वे अचल खड़े रहे
मार खाते काटे छाटे जाते।
कई बार वे जाना चाहते थे चुपचाप
लेकिन उस समुद्र की सोच कर रुक जाते रहे
जो उनसे कुछ ही दूरी पर पड़ा है युगों से
कराहता विलपता!
उन्होंने तय किया जब खारी समुद्र को मिल जाएगा दूसरा घर दूसरी पृथ्वी दूसरा तट
तब जाएंगे वे कहीं और।
पेड़ों के खड़े रह जाने की अनेक बुनियादी बातें हैं
जो या तो पेड़ों को पता हैं या पानी की उन बूंदों को जिनसे पिछली बरखा में पेड़ों ने
वादा किया था कि ठहम उस दिन सूख जाएं
जिस दिन जल और बूंदों को भूल जाएं’
पेड़ तब जाते हैं कहीं
जब पखेरू उन पर बसेरा करना छोड़ देते हैं
सूर्य उनकी पीठ सेकने से इंकार कर देता है
क्षीण हो गया चंद्रमा
अपनी अमावस्या की गुफा में जाने के पहले
ठहे विटप लौट आऊंगाठ कह कर नहीं जाता
जब लकड़हारों को उन पर कुल्हाड़ी चलाने का कोई पछतावा नहीं होता
तब जाते हैं कहीं और
उदास अकेले पैदल पैदल पेड़!
नहीं तो तुम ही बताओ
तुमने किसी पेड़ को स्वयं से
कहीं जाते देखा है?
खिड़कियों की रुलाई!
एक कार कुछ ही देर पहले
घर से थोड़ी दूर आ कर रुकी है
उसकी हेड लाइट जल रही है
कुछ लोग चिल्ला रहे हैं जल्दी करो
जल्दी करो!
लोगों के चिल्लाने से पता चला
किसी को जाना है
को रो ना के इलाज के लिए!
एक रोती हुई महिला
बार बार पलट कर देखती हुई
धीरे धीरे
बढ़ रही है उस कार की ओर!
ऐसे जैसे जाना न हो उसे कहीं
कहीं भी!
पीछे शायद उसका बेटा खड़ा है
पति भी है और बिटिया या बहू या
कोई बहन!
उसका रोना दूरी और कार की आवाज के बीच एकदम सुनाई नहीं दे रहा
बहुत सी रुलायियां शब्द हीन हो गईं हैं
वे केवल ध्वनियां बची हैं
केवल सिसकियां!
कुछ लोग उस कार
और उस रोती हुई महिला की तरफ बढ़ते हैं
वे भी रो रहे हैं
बिना शब्द किए
प्रकाशित उनके चेहरे
विषाद और आंसुओं से भरे हैं।
महिला रुकती है
रोती हुई निरंतर देखती है
कुछ दूर पर ठिठक गए लोगों को
कोई नहीं जो साथ आए थोड़ा और पास।
वह लौट नहीं सकती
वह रुक नहीं सकती
उनमें से निकल कर दौड़ता है
युवक लेकिन कार के साथ आए लोग
डपट कर रोक देते हैं उसे
वह चीखता है
जाने नहीं दूंगा जाने नहीं दूंगा।
महिला उसे हाथ के संकेत से दूर रहने को कहती
रोती विलापती कंपकपाती बैठती है कार में।
न कोई सामान
न कोई प्रस्थान और
वापसी का निश्चित पता
वह जा रही है
एक अनिश्चय की यात्रा पर
इन कुछ लोगों के आंसुओं में
कोई और आंसू घुलता नहीं अब
इतना छिन्न भिन्न विलाप
इतने उपेक्षित आंसू
इतनी निष्ठुर विदाई
अचानक चलन में वैâसे आ गई?
कार जा रही है
धीरे धीरे
उतने ही प्रकाश में उतने ही लोग
वैसे ही देखते हैं कार की दिशा में
कार जिधर गई है
उधर भी उजाला है दूर तक
दूर तक शोक प्रति ध्वनित है
दूर तक दु:ख प्रकाशित है
कितना देर खड़ा रह सकता है आदमी
एक अनिश्चित यात्रा पर निकले स्वजन के लिए भी?
मैं किस्से पूछ सकता हूं
रोती हुई उस महिला को वैâसे चुप कराया जा सकता है!
उदास लोगों को
ढाढस बंधाने के लिए क्या कोई नया शब्द खोज लिया गया है?
रोते लोगों को चुप कराने के लिए नई भाषा क्या नियत हुई?
विदा करने का कोई नया सूत्र ईजाद नहीं हुआ है अब तक
शायद ये विदाइयां अपने को विदाई माने ही नहीं!
सब चले गए
जहां कार खड़ी थी वहां एक उदासी
अदृश्य खड़ी है
जो कार के समूचे आकार से बहुत बड़ी है
छा जाता है एक विचित्र सुन्न
है सुन्न के बीच
अचानक सुनाई पड़ती है
मोह¼े की
अनेक खुली खिड़कियों के बंद होने की रुलाई!
बताओ बताओ!
बहुत थक गया हूं
फेफड़े में बहुत कम बची हैं सांस
देह लोहू का गोदाम हो गया है जैसे
कहां है मेरी आत्मा
वह है भी की नहीं?
सोने जाता हूं
सो भी जाता हूं बहुत गहरे
किन्तु नींद नहीं आती
रात दिन मेरी नींद में
बहुत भीतर कोई पैदल चल रहा है लगातार
बुद्ध पूर्णिमा की रात के पहले से
काली चौदस की रात तक लगातार।
मैं उससे कहता हूं रुको
विराम ले लो
दिखाओ अपने पैरों के घाव
वह गहरे घाववाले पैरों को दिखाता है
लेकिन रुकता नहीं
चलता रहता है
वह कहता है कि
ये घाव आराम करने से नहीं चलने से भरेंगे।
वह कहता है उसके नाना उन्नीस सौ तीस में विंध्याचल से पैदल आए थे बंबई
वह दो हजार बीस में पैदल जा रहा है मुंबई से विंध्याचल!
नाना के पास आने के लिए किराया न था
तब अंग्रेजों की सरकार थी
मेरे पास जाने का किराया और साधन
नहीं है
यह अपनों का राज्य है।
मैं उसे समझाता हूं
शिकायत मत करो किसी की
वह कहता है तुम रुकने को कहोगे तो मैं शिकायत करूंगा
तुम मेरे पैरों के घाव दिखाने को कहोगे
तो मन के घाव देखने होंगे!
मैं उससे मुंह मोड़ कर सोने चला जाता हूं
सो जाता हूं लेकिन नींद नहीं आती है
वह अपने पैरों से धरती को धूल बनाता
आगे बढ़ता जाता है।
आंखों में पड़ती है
उनके पैरों के घाव में धंसी धूल
बहुत आगे जा कर करता है मुझे फोन
कहता है आज किसी ने मेरे घायल पैरों की फोटो छापी है किसी अखबार में
वह फोटो भेजना चाहता है
वह कहता है उसका दु:ख दृश्य हो गया है देश में
विपत्ति मनोरंजन वैâसे हो गई उसकी?
मैं चुप रह जाता हूं
वह उखड़ती सांस से कहता है बताओ
मेरे घाव प्रदर्शन की वस्तु क्यों हो गए
मेरे ऊपर तो चवन्नी किसी का बकाया नहीं?
मैं चुप ही रहता हूं
वह भी चुप रहता है पैदल चलता
फिर कहता है कुछ भावुक हो
सुन रहे हो
अकेले जाने का कोई मलाल नहीं
बस एक बात का दु:ख है
तुम मेरे साथ क्यों नहीं आए गांव
तुम आते तो
तुमको अच्छा लगता
एक मां अभी कटोरा भर खिचड़ी दे गई हैं
एक नदी में नहाया
ऐसे जैसे गंगा में हम साथ नहाते थे
न उस नदी का नाम जान पाया
न उस बूढ़ी मां का
खिचड़ी वैसी ही बनी थी जैसा तुम खाते हो
अचार वैसा ही जैसा तुमको पसंद है
तुम आते तो
मेरा अकेली भगाए जाने का दु:ख कम होता!
दु:ख यह है कि यह मुसीबत मेरे अकेले के हिस्से आई
बात खत्म करने के पहले समझाता है मुझे
राशन अनाज रख लेना खूब
अपना ध्यान रखना
पीछेवाले कमरे की एसी ठीक करा लेना
बिटिया गर्मी सह नहीं पाती है
मैं पहुंच कर फोन करूंगा!
सात दिन हो गए हैं
उसका फोन बंद है
वह घर नहीं पहुंचा है
बहुत उजली रात का सारा उजाला कम हो गया है
दिन तो वैसे में काले हो गए थे
बहुत पहले ही!
वह पैदल कहां चला गया
उसका गांव विंध्याचल के आगे तो नहीं खिसक गया
या वह चलने की धुन में भूल गया हो रास्ता?
इस समय कुछ भी संभव है
यात्रा और यातना का अंत न हो
यह संभव है!
गांव वहीं न रह गया हो यह भी
संभव है!
मैं सोने जाता हूं
वह पैदल चलता जा रहा है मेरे भीतर
इतनी धूल भर गई है
कि मेरी नींद भूल गई है
रास्ता!
कविता लिख कर मु़क्त नहीं हो सकता मैं
कविता पढ़ कर तुम भी मुक्त नहीं हो सकते
उत्तर दो उसका
वह अकेले पैदल क्यों गया?
धनंजय कुमार बताओ
मंजुल भारद्वाज तुम भी बोलो
वागीश सारस्वत चुप क्यों हो
आभा भाविनी शैलेश रमन सुरबाला मयंक
तुम में से कोई क्यों नहीं गया उसके साथ?
बोलो बोलो
बताओ बताओ?
देखता हूं!
अपनी ही
टूटी हुई पत्तियों की मालाएं
पहन कर खड़े हैं जैसे पेड़!
ऐसे खड़ा हूं
अपने घर के बड़े गवाक्ष पर मौन!
कटे हुए सिरों पर अभी भी बंधी हों
सुन्दर पगड़ियां वैसी सुबह चमकती है बाहर
कटी हुई अंगुलियों में दमक रही हो
नग जड़ित अंगूठियां जैसे
वैसी शाम होती है
लुभावनी पुकारती और
दुटकारती हुई!
घोड़ों की प्रतीक्षा में खड़े रथों को
घुन खा रहे हैं जैसे
ऐसी लुप्त होती अनेक भंगिमाएं
द्रवित हो रही हैं बिना सूचना के
जलाए जा चुके पैरों की
जैसे प्रतीक्षा करते हैं छूट गए जूते
वैसे किसी प्रतीक्षा में बैठा हूं!
हल्दी पड़ी है शिल पर
जल हीन
उसकी उपयोगिता खत्म हो जैसे
माथे का पोछा गया तिलक
ऐसे धुंधला बिखरा सा दिखता मुख
समय का।
सब कुछ वैसा ही अनिश्चित है
जैसे खड़े पेड़ को नहीं पता कि वह काटे जाने पर चूल्हे में जलेगा या चिता में या
समिधा में पड़ेगा स्वाहा के साथ!
राह में किसी स्त्री का हाथ भी छू जाने पर
चिंता से गलने लग जाता है मन
पानी में डाले नमक सा!
मेरे पास उम्मीदवाले शब्द बहुत कम होते जा रहे हैं
जो रास्ता दिखाए वैसे प्रकाश की आवश्यकता
मिट गई हो जैसे
ऐसे जलता बुझता है सूर्य!
घर मरण का प्रतिक्षालय भर
है अब
यह कहते ग्लानि से गड़ जाता है मन
जैसे मैं किसी घोसले में रखा जलता हुआ कोयला हूं
धीरे-धीरे जल रहा है
सब कुछ।
किसे पुकारूं किसे टोक कर कहूं कि ऐसे उदास नहीं होते ऐसे बिना सुस्ताए छहाए
तो मृतक को भी नहीं ले जाते शमशान! किसे कहूं कि रुको मैं एक कंधा भी हूं
और एक शव भी हूं
और एक स्वप्न भी!
जीवित की कपाल क्रिया का चलन क्यों चलाया कृष्ण तुमने
यह देश प्रभास क्षेत्र जैसे होता जा रहा है
मत्त और निष्ठुर!
किसी को नहीं देता सुनाई
ऐसे दे रहा हूं मैं दुहाई!
नदी के अथाह मैले
पानी में डूबते लोटे की सी करुण ध्वनि
डुबाती भरती सी
भरता डूबता जाता मैं प्रतिपल
बाहर देखता हूं
जबकि नहीं है वैसा कुछ भी दर्शनीय
फिर भी लौट लौट
देखता हूं बाहर!
अभी इस समय!
अभी इस समय
कहीं बहुत नजदीक के घरों में
कुछ लोगों के रोने की आवाज आ रही है।
निकल कर जानना चाहता हूं
लेकिन कुछ समझ नहीं पाता
और फिर अन्दर लौट आता हूं।
यही एक बात मुझे परेशान कर रही है इन दिनों
आदमी के दु:ख का अनुमान भी नहीं मिल पाता
कल भी शायद न पता चले कि कौन लोग थे
जो व्यथा से भर कर रोते रहे आज रात भर?
उनका दु:ख क्या था
उस व्यथा का क्या हुआ निदान?
वहां कुछ और लोग हैं जो रुलाई के दर्शक हैं
श्रोता हैं साक्षी हैं
खिड़कियां खुल कर बंद हो जा रही हैं
मदद के हाथ बढ़ा कर पीछे हट जा रहे हैं लोग
पूर्णिमा है या अमावस सबका रंग
क्षीण हो गया है!
प्रकाश होने न होने से
बहुत अंतर नहीं पड़ता मन पर।
सोच रहा हूं
रात की जगह दिन होता तो भी ऐसा ही होता
सब कुछ दूर हो गया है
और समझ के बाहर भी।
कोई कहता है मुझसे
‘तुम्हें जागना हो तो जागते रहो रात भर
सोना हो तो सो जाओ
तुम्हें रोना है तो रो भी लो
कर लो जो जितना कुछ कर पाओ’
कौन था यह देखने की कोशिश की तो ओह
यह क्या
यह तो सरदार पटेल हैं
आंखों से निथर रहा है गाढ़ा खून
कुछ देख नहीं पा रहे
टटोल कर चलते गिरते उठते
अपनी आंखों के खून से भीगे
भूख से परास्त पटेल
अपनी ही मूर्ति के आगे
कटोरा लिए बैठे पटेल!
मैं उनसे कहता हूं
‘आप क्यों निकले इस अकाल बेला में
और आंख का निदान क्यों नहीं करवाते आप?’
वे बोलते हैं
‘धीरे बोलो
इतना धीरे की मेरी मूर्ति भी
न सुन पाए हमारी बातें
मूर्तियों से डर लगता है
मैं अपने ये खून के आंसू
छिपाता हुआ आया हूं यहां तक
अपनी भूख
अपने घाव
अपने अभाव
सब छिपाओ और चुप रहने का अभ्यास करो’
मैं दौड़ता हूं पोछ दूं पटेल के रक्त अश्रु
लेकिन पटेल खो जाते हैं
एक विशाल इस्पात मूर्ति में।
उनके खून का निशान धोया जा रहा है
अनेक तरह से साफ किया जा रहा है
उन के खून का हर कण!
उनको भी बांधा जा रहा है
लौह शृंखलाओं से
उसी भयानक डरावनी मूर्ति में
जिसमें वे समाहित हो गए
अभी अभी!
मैं सोचता बैठा हूं
अपने छोटे से कमरे में
क्यों आए पटेल यहां
आंख में खून के आंसू थे तो पूरा गुजरात पार कर वैâसे आए वे मेरे पास?
जब दु:ख दिखाना मना है
वे वैâसे निकल पाए होंगे?
मैं भूल जाता हूं कि मैं घर में नहीं
सड़क पर हूं
और राह भटक कर चला आया हूं
पटेल के पास!
यह जो विलाप है क्या
यह सरदार पटेल का ही रोना है?
नहीं नहीं नहीं
सरदार नहीं उनकी मूर्ति की छाया में घायल पड़े हैं
विनोबा यह उनकी रुलाई है?
या मोहनदास करमचंद गांधी तो नहीं?
ऐसी साधारण जन सी रुलाई कौन रो सकता है
जो चतुर्दिक सुनाई दे
हर आदमी के फेफड़े में
हर आदमी के मस्तिष्क में
हर आदमी के पराजय में
जो रोर बन कर गूंज जाए
यह किसकी रुलाई है?
अरे अरे यह तो गांधी ही हैं
अपने फेफड़े में धंसी पिस्टल की गोलियां
अपने हाथों से निकाल कर गांधी भागते जा रहे हैं
रोते हुए न करते हुए फरियाद
न बचाव के लिए राम को पुकारते
न अपना दु:ख किसी को दिखाते
न गोलियों से बने घाव से बहता रक्त रोकते।
लेकिन पैदल पैदल कहां तक भाग पाएंगे गांधी?
कितनी दूर है उनका गांव
उनका अपना पोरबंदर सेवाग्राम!
पांव कट गए हैं
उनकी लाठी छीन ली है किसी ने
उनका खून सोखने उनके घावों से चिपक गए हैं ये कौन लोग?
और उस पर भी जब नहीं मरते गांधी
नहीं गिड़गिड़ाते गांधी
फिर भी
उनके पीछे दौड़ रहे हैं रिवाल्वर लिए कितने लोग
निशाना साधे
घेरते गांधी को
विनोबा को!
यह गांधी ऐसे क्यों रो रहे?
क्यों गिड़गिड़ा नहीं रहे
मांग नहीं क्यों रहे प्राण की भीख
आखिर इतने बेगाने क्यों हैं पिता?
कौन लोग हैं जो गांधी की हत्या में सुख पाने का उपाय खोज रहे हैं
कोई चेहरा छिपा नहीं है अब
फिर भी पहचान करना कठिन वैâसे हो रहा है?
मैं जोर देता हूं
लेकिन हजारों चेहरे मिल कर एक हो गए हैं
और इतने अभिभूत हैं सब की हत्यारों की शिनाख्त से अधिक उनके प्रभा मंडल पर
है सबकी आंखें
और वहां मेला सा लग गया है
गांधी का शरीर
गांधी का खून सब
उज्ज्वल होकर एक पवित्र द्रव में
परिवर्तित हो गया है
जिससे तिलक लगा कर
लोग लगातार पवित्र होते जा रहे हैं।
ऐसे लोगों की भीड़ इतनी अधिक हो गई है
पटेल की मूर्ति के पीछे कि
अब गांधी के रोने की वजह भी
पता नहीं चल पा रही है।
मैं खुद से पूछता हूं कि क्यों रो रहे होंगे गांधी
उनको क्या दु:ख था
क्यों बह रहा है पटेल की आंखों से खून
क्यों विक्षिप्त से घूम रहे विनोबा
उनको
उन सब को अभी क्या तकलीफ है?
एक साथ हजारों लोग डपटते हैं
मुझे कि
‘अपना उपच्ाार कराओ
कहीं कोई नहीं रो रहा
यह तुम्हारा भ्रम है
और ऐसा ही है तो सुनो संसार भर की रुलाई
तुमको किसने रोका है
जो नहीं सुनाई पड़ रही हैं उनको भी सुनो
फिर संसार भर की दिख रही और
छुपी सारी रुलाइयों को गूंथ कर
एक कविता बनाओ!
तुम उनका दु:ख भले न समझ पाओ
पर उनके दु:ख को
अपनी विकलता से जोड़ जाओ
कविता से हमको फर्क नहीं पड़ता है’
मैं अपने को समझाता हूं
सुबह बात करूंगा आस पड़ोस में
पूछूंगा गांधी को रोते सुना क्या?
पटेल तुम्हारे पास भी आए थे
आंखों से बहाते रक्त अश्रु
तुमने गांधी के फेफड़े में फंसी वह गोली देखी क्या?
कोई सीधे बात नहीं करता
कोई नहीं देता उत्तर
और उधर पटेल की मूर्ति की छाया में
गांधी को घेर कर जलाया जा रहा है
जीवित जल रहे हैं गांधी!
विनोबा भीड़ से बाहर निकल कर गांधी तक जाना चाहते हैं
लेकिन उनके मुंह में ठूंस दी गई है
गीली मिट्टी
उनको लिंच कर रहे हैं
राम राम चिल्लाते लोग
न विनोबा की चीख सुनाई दे रही है
न आंसू दिखाई दे रहे हैं
उनका मुख धीरे धीरे मिट्टी होता जा रहा है
वे स्वयं मिट्टी होते जा रहे हैं!
भीड़ उनको खंभे से बांध कर
चली गई है पटेल की मूर्ति की ओर
विनोबा की चकीदारी कर रही है उनकी ध्वस्त परछाईं।
अपनी परछाईं से प्रार्थना कर रहे हैं
विनोबा की वह उनको गांधी तक जाने दे।
उधर आग में घिर गए हैं गांधी
उनका तिनका तिनका
घिरा है आग से।
इस तरह घिर जाने और सुलग कर गिर जाने से जय की संभावना हो गई है प्रबल
बहुत कोलाहल है
बहुत विजय उल्लास है उधर!
उसी उल्लास के
आस पास से लगातार
अनेक लोगों के
रोने की आवाजें आ रही हैं
मैं स्वयं एक विलाप में परिवर्तित हो गया हूं!
पटेल की आंख का रक्त अश्रु हूं मैं
गांधी का छिदा हुआ रक्त हीन शरीर हूं मैं
बहुत करीब से कहीं से
आ रहा वह रुदन हूं मैं!
ओह भाव की सारी बातें खून से सुगंधित हो चली हैं
मैं किसी दिशा में निकलता हूं
विदा मित्रों विदा!
हमारे पास मत आओ!
लोग जा रहे हैं
लाखों लोग जा रहे हैं
पैदल उदास
भूल कर भूख प्यास
दिशा समय धूप छाले
भूल कर चलते जा रहे हैं!
मैं कुछ दूर भाग कर चलता हूं उनकी दिशा में
जैसे मृतक के साथ चलने का रिवाज है
मैं चलता हूं चालीस कदम उनकी ओर
कुछ एक को देना चाहता हूं कंधा
किन्तु यह सब किए बिना
लौट आता हूं खुद तक!
खुद को कंधा देता हुआ पाता हूं!
वे सब मेरे भाई हैं
वे सब मेरे गांव के हैं
वे सब मैं हूं!
वह भीड़ मैं हूं!
वे छाले मेरे पैरों में हैं
वह पानी पीने को अंजुलि पसारे बैठा मैं ही हूं
वह रास्ते में रो रही है मेरी मां
वह दूर गिरा है मेरे बेटे का शरीर निर्जल
वह मेरी बेटी एक राख के चट्टान पर शून्य बैठी है!
उसकी दृष्टि में धूल और राख भरी है
वह रोती है राख के आंसू!
वह देखो अपने गर्भ को सम्हाले जा रही है मेरी मां!
उससे जन्म लूंगा मैं पैदल यात्रा में मरने के लिए!
रास्ते में कोई नहीं गाएगा मेरे जन्म मरण का सोहर!
इस तीन रंगवाले चक्रधारी झंडे के देश में
ऐसे जाने का कोई निशान नहीं मिलता
न राम ऐसे गए थे
न पांडव न सिद्धार्थ गौतम
हम एक ऐतिहासिक दृश्य हो गए हैं
सुखी लोगों को चमत्कृत करते
समाचारों के लिए ऊब
और सरकारों के लिए सूखी दूब हम!
बहुत दूर है अपनी अयोध्या
बहुत दूर है अपनी मिथिला
रावण खर दूषण के जंगल में घिर गए हैं हम
केनिहत्थे हम पैदल हम भूखे हम
हमारे धनुष बाण हमने खुद खोए हैं
यह वनवास हमने खुद लिया था
यह वापसी हमारी अपनी है
हम हारे हुए राम हैं भाई
हमारे पुष्पक विमान रावनों की वैâद में हैं
कितने विभीषण कितने हनुमान कितने बालि कितने सुग्रीव सभी रावनों से संधि
करके पा गए हैं राज्य!
अब नहीं जलती लंका
उसके चौकीदार हम ही थे
उसी लंका से खदेड़े हुए हम
निष्कासित हम
पैदल पैदल अपनी अयोध्या जा रहे हैं!
छालों वâे जूते पहन कर
उदासी का मुकुट बांधे
पराजय का प्रशस्तिपत्र गले में लटकाए
अश्वमेघ के बलि अश्व की तरह
अपनी भूमि की ओर खिसक रहे हैं हम।
हम लाखों लोग
हम अबोध बच्चे हम बूढ़े लोग
हम युवतियां हम बहुएं हम पराजित पुरुष
हम बिके हुए अवध मिथिला के लोग
हम प्राण बचाते निर्लज्ज अपना घाव दिखाते
यहां वहां धक्का खाते
पेट बजा कर पैसा पाते
घिसट घिसट पैर बढ़ाते
लाखों लोग जा रहे हैं!
हम भीड़ की फोटो हैं
हम पराजय के प्रतीक हैं
हम एक देश की शव यात्रा हैं!
हमें जाते हुए देखो
और उदास हो जाओ
हमें दूर से देखो
हमारे पास मत आओ!
आत्मनिर्भरता!
पृथ्वी आत्मनिर्भर है और सूर्य भी
यह कहा जा सकता है
लेकिन कोई नहीं है आत्मनिर्भर
न चंद्रमा न बादल न समुद्र न तारे
सब टिके हैं एक दूसरे के सहारे!
पृथ्वी और चंद्रमा के बीच की दूरी है उनका संबल
सूर्य देता है चंद्रमा को अपनी चमक अपनी रोशनी
समुद्र से जल लेते हैं बादल
और उसे पृथ्वी को लौटा देते हैं
थोड़े सुख दु:ख जोड़ कटौती के साथ!
पृथ्वी को लौटाना भी समुद्र को ही लौटाना होता है
नदियों को लौटाना भी समुद्र को लौटाना होता है।
कपडे निर्भर हैं धागों पर
धागे रुई कपास पर
कपास खेत पर
खेत सूर्य के ताप मेघ और जल पर
जल समुद्र पर
समुद्र टिका है पृथ्वी की गोद में
पृथ्वी टिकी है सूर्य चंद्र के िंखचाव और दुत्कार पर!
उदाहरण अनेक हो सकते हैं
पराए पर निर्भर होने के
तुम एक आत्मनिर्भर का उदाहरण दे सकते हो क्या?
फेफड़े निर्भर है हवा पर
खून निर्भर है अन्न पर
शरीर निर्भर है पता नहीं कितनी चीजों पर
शब्द निर्भर हैं अक्षरों पर
अक्षर ध्वनियों पर
और ध्वनियां वायु और शून्य के विस्तार पर!
बहुत कुछ निर्भर है तुम्हारे देखने और न देखने पर
बहुत कुछ निर्भर है तुम्हारे सुनने और न सुनने पर
बहुत कुछ निर्भर है तुम्हारे बोलने और चुप रहने पर
तवा निर्भर है आंच पर
वह खुद गर्म नहीं हो सकती इतनी स्वयं से कि सेक दे एक रोटी खुद के ताप से
बटलोई अन्न नहीं जुटा सकती और
हल खुद नहीं जोत सकते खेत
लोहा निर्भर है
हाथ भट्ठी और हथौड़े पर और उस निहाई पर कि वह हंसिया बने या कुछ और
और इस निर्भरता में भाथी और उसके उस चमड़े को न भूल जाएं जिस पर निर्भर है
यह सब कुछ गला देने का व्यापार!
और उस पशु को भी नहीं भूलें जिसकी खाल से बनती है भाथी और उस हाथ और
छुरे को भी नहीं जो उतरता है खाल
और बनाता है भाथी!
वह अकेला पेड़ भी आत्मनिर्भर नहीं है
वह जितना पृथ्वी पर निर्भर है
उतना ही पृथ्वी की नमी पर
और उस हवा पर भी जो नहीं दिखती
न तुम्हें न उस पेड़ को!
तुम जो कुछ और जहां तक देख रहे हो या नहीं भी देख रहे हो सब निर्भरता का खेल
है यह
निर्भरता सृष्टि का जल है!
जहां निर्भरता का जल नहीं वहां कोई लोरी नहीं कोई झिल मिल नहीं
कोई गीत नहीं!
पैदल जाते लोगों के घाव पर निर्भर है यह जनतंत्र
तुम इनसे आत्मनिर्भर होकर दिखाओगे क्या?
तुम हजार जन्म लेकर भी आत्मनिर्भरता का
कोई एक उदाहरण बताओगे क्या?
प्रतीक्षा है!
बहुत सारी रुलाइयां
दूर दूर से आकर घेर ले रही हैं
एक एंबुलेंस अभी अनेक सिसकियों को
समेट कर ले जा रहा है!
पूरा लंबा रास्ता द्रवित है एंबुलेंस के विषाद से
वह स्वयं क्यों जा रहा है रोता हुआ
किसे ले गए लोग?
क्यों ले गए लोग?
कौन लोग हैं जो रोना नहीं भूल पाए
अब तक इस भौतिक संसार में?
खिड़की खोल कर देखता हूं
बेमियादी वैâद से
बाहर झांकने की य्ाह एक नई सीमा है।
इस रुदन की कोई एक भाषा नहीं
सारे व्याकरण ध्वस्त हो गए हैं
फिर भी रुलाई का व्याकरण समझने को
क्यों परेशान हूं अभी तक?
दु:ख और यातना का कारण जान भी लूं
तो भी क्या कर लूंगा
फिर भी
किसे और क्यों ले गए लोग
यह ठीक ठीक जानने को आतुर
झांकता हूं बार बार बाहर!
यह मेरी विकलता मेरी विफलता है?
बाहर जाने की टूटी हुई कुंडी है मेरी उदासी?
मेरे भीतर बार-बार कोई कहता है
कि यह उदासी और आँसू का सूत्र है जीवन
जो हर बार मुझे सोते से जगा देता है
कहता हुआ कि समेट लो सामान
बुझा दो स्मृतियों को
मूंद दो पोथियों की आंखें
देख लो उस पौधे को जिसे लगाया पिछले
शुक्ल पक्ष के पखवारे में
कुछ देर में या अगली किसी रात में
तुमको ले जाने आए कोई
एंबुलेंस नए रुदन का समन करने!
खिड़की नहीं करता बंद
किताब नहीं रखता अलमारी में
नहीं समेटता सामान
खड़ा रहता हूं कितनी ही देर
न जाने किस प्रतीक्षा में
एक अनजानी रुलाई से लिपटा घिरा।
संदिग्ध समय में कवि
एक समय ऐसा आया कि
कुछ लिखने को बचा ही नहीं
कवियों और विचारकों का
पूरा आर्यावर्त ही संदिग्ध हो गया।
कविता बहुअर्थी हो गई थी
और कवि स्वार्थी।
किसी को किसी पर भरोसा न रहा
एक ही पता लोग कई लोगों से पूछते थे
और पहुँच जाने पर भी
यकीन नहीं होता था कि पहुँच गए।
वे सुरक्षित हैं और सोने के बाद
कोई उनका गला नहीं दबाएगा
यही बात उनके खुश होने के लिए बहुत थी
उनके खाने में विष नहीं था
इसी बात पर वे आभारी होते थे।
पत्तियों के आभारी होते थे पेड़ कि
वे अकाल उनका साथ नहीं छोड़ रहे
मिट्टी के आभारी थे पेड़ कि
वह जड़ो को नमी खींचने दे रही है
लकड़हारे आभारी थे पेड़ों के कि वे
अगले दिन भी कटने के लिए खड़े रहते हैं
पृथ्वी में पंजे धंसाए।
शासक को लोग झूठा मानते थे
उससे बढ़ कर कोई विदूषक न था
और वह वचन तोड़ता था कि अगला वचन दे सके
और लोग सारी बातों को संदिग्ध मान कर
भरोसा कर लेते थे।
राजधानियों में संदिग्ध परछाइयाँ
रातों को भटकती थीं
वे किसी के भी फोन में से डेटा और सपनें
चुरा लेतीं थी।
समय ऐसा था कि धोखे की सारी आशंका के बाद
भी एक स्त्री एक अपरिचित पुरुष से मिलने
अपरिचित ठिकाने जाती थी।
और धोखा खाने के बाद भी
वह इसलिए आभारी रहती थी कि
अपरिचित ने उसकी हत्या नहीं की।
कविता संदिग्ध हो गई थी
शब्द खो चुके थे अर्थ
फिर भी लोग कविता से एक उम्मीद लगाए रहते थे
कि एक दिन वह सही सही अर्थ दे पाने में
शब्दों की मदद करेगी
कोई शब्द बिना अपना अर्थ पाए
अपमानित नहीं मरेगा।
इससे तो अच्छा था!
इस जीवन से अच्छा था!
मैं पैदल गांव जा रहे किसी मजदूर के
नंगे पैरों का जूता हो जाता!
या मैं एक राह भटके यात्री की प्यास का
पानी हो जाता
या एक धू धू दोपहर में
राख हो रही किसी बच्ची को घर पहुंचाने वाली
बस या बैलगाड़ी हो जाता
उसके घने घुंघराले बालों वाले सिर पर
नन्हीं गोल टोपी हो जाता
एक भूखी स्त्री के
पेट भरने का अन्न हो जाता
उबला हुआ भुना हुआ या कच्चा अन्न!
या उसके मलिन महावर वाले पैरों के नीचे
हरी दूब हो जाता!
जीवन ऐसे अकारथ जाए एकदम
चूक जाए इस पृथ्वी पर आना
इससे तो अच्छा था
किसी झूठे शासक को बांधने की
बेड़ी हथकड़ी हो जाता!
सड़क पर
एक हुंकार हो जाता।
इससे तो कहीं अच्छा था
मैं किसी सरकार की चिता की
लकड़ी हो जाता!
धधक कर
एक हाहाकार हो जाता।