(कवी-चित्रकार)
समकालीन हिन्दी कविता का एक महत्त्वपूर्ण स्वर। कवितायें देश की
लगभग सभी भाषाओं, अँग्रेजी और जर्मन में अनुदित हुई हैं।
पुस्तकें :
१. पहर यह बेपहर का (२००९) राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
२. ये आवाज़ें कुछ कहती हैं (२०१४) दखल प्रकाशन ढयह १८ दीर्घ कविताओं का संग्रह हैल
३. मैजिक मुहल्ला (दो खण्डों में) (२०१९) वाणी प्रकाशन, दिल्ली
ढस्व. दिलीप चित्रे की मराठी और अंग्रेजी कविताओं का हिन्दी में अनुवाद
मक्कार चुप्पियाँ -१
जब मनुष्यता की बात हो रही थी
फ़लस़फे ओढ़ कर
तुम
अट्टहास कर रहे थे
दुश्मन के कन्धों पर लेट कर
कन्धों से पेट
पेट से ज़मीन तक
तुम लेटे रहे
तुम जिस आज़ादी की गुहार लगाते थे
उसमें हत्या वाजिब थी
झूठ सत्य था
गद्दारी ही वफादारी थी
इतनी परतें थीं तुम्हारी आवाजों में
कि
मैं
जिसकी हत्या की जा रही थी
वही हत्यारा घोषित हो गया
मैं अभियोगों में घिरा हूँ
विश्व मेरे विरुद्ध है आज
मानवता के ध्वज उठाये तुम
हत्यारों का कीर्तन कर रहे
सड़क पर गिरी मेरी आँतों पर
तुम्हारी यह चुप्पी
मक्कार है
मक्कार हैं ये चुप्पियाँ
तुम्हारी
तुम्हारे नियोजित और निरुद्ध
आडम्बर मक्कार हैं!
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जो कहेगा, मारा जायेगा
मेरी जेब में बामियान है
आँखों में सच,
भीतर तूफान
सिर में धँसा है एक ध्वज
मेरे हाथों में दिये गये हैं
कई रंग और
जुबाँ पर भाषायें उन रंगों की
रंग चालाक हैं
सच नहीं कहते
पक्षधरता है अधकथन
इस युद्ध में
बचेगा वही जो रंग चुनेगा
जो सच कहेगा, मारा जायेगा
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लौटता हूँ
लौटता हूँ उसी ताले की तरफ
जिसके पीछे
एक मद्धिम अन्धेरा
मेरे उदास इन्तजार में बैठा है
परकटी रोशनी के पिंजरे में
जहाँ फड़फड़ाहट
एक संभावना है अभी
चीज-भरी इस जगह से
लौटता हूँ
उसके खालीपन में
एक वयस्क स्थिरता
थकी हुई जहाँ
अस्थिर होना चाहती है
मकसद नहीं है कुछ भी
बस लौटना है सो लौटता हूँ
चिंतन के काठ हिस्से में
एक और भी पक्ष है
जहाँ
सुने जाने की आस में
लौटता हूँ
लौटने में
इस खाली घर में
उतार कर सब कुछ अपना
यहीं रख-छोड़ कर
लौटता हूँ अपने बीज में
उगने के अनुभव को `होता हुआ’
देखने
लौटता हूँ
इस हुए काल के भविष्य में
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मेरी गोद में
इस गोद में सेज है
तुम्हारी
उड़ानों की उड़नपट्टी है
यहाँ
तुम्हारे नरम सपनों का जंगल है
जिसमें संसार की पगडंडियाँ
घुसते ही मिट जाती हैं
उस जंगल में
टिमटिमाती कस्तूरी मणियाँ हैं
सुकुमार जल पर पैâली महकीली लतायें हैं
जो अपने ही ढब के पूâल ओढ़ी हुई
नाज़ुक सी ऊँघ में खिल रही हैं
वहाँ हवा में तैरती गुलाबी मछलियों की
किलकारियाँ हैं
पंछियों का गुंजार तुम्हारे हास की
थपक पर थिरकता है
वहाँ
उस जंगल में बस्ती है
मेरी आदिम जातियों की
उनके आग और काँटों के संस्मरण हैं
पूâलों की गुलगुली छाती में
तपने और जूझने के
दाँत भींचे एकटक आईने हैं
किचकिची और लिजलिजी पीड़ायें हैं
ईमानदारी पर मिली बदनामियों की
ग्लानियों में आत्मदहन के क्षण हैं
मनुष्य होने के संघर्ष में
अनुभवों की थाती है
उसी वन में मेरा शुद्ध आत्मबोध है
अनगढ़ अशब्द अपरिभाषित
और स्फटिक की चमकती खोह है
चेतस् ऊर्जा का हस्ताक्षर है वहाँ
मेरा तुम्हारा होना
मेरी गोद में तुम हो
और तुममें एक सुकुमार उनींदी
गोद है
जिसमें मेरा होना
हो रहा है!
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नदी का अदृश्य
नदी का अदृश्य होना
यहाँ होता है!
मेरे कन्धे पर रो कर चुप हुआ तुम्हारा चेहरा
और तुम्हारी पीठ पर
तिरोह में ठुमकती थपकियाँ
एक अदृश्य नदी बह रही है
हमारे बीच
मेरी रातों में अक्षर तैरते हैं
अपने शब्दों से मुक्त हो कर
उनकी मुक्तियों में यह नदी भी मुक्त होती है
मुक्त होते हैं हम और जीवन
अर्थ पाने लगता है
यह अर्थ का संधान है हमारे बीच
हम एक नदी हैं
बहते हुए चले जायेंगे कहीं दूर
उस नदी से नाम हटा देंगे
होने देंगे उसे वैसी ही जैसी कि वह है
अपने बहने में
हम हटा देंगे
उसको जकड़ती व्याख्यों
मन्त्रों से निकाल कर उनके भाव रख लेंगे
त्याग देंगे शेष आडम्बर
रहेंगे अपने बीज भाव में बहते हुए
अपनी लहर को हर लहर से जोड़
बहेंगे सब के संग बिना कछारों के
उसी दिशा में मुक्त
नदी का अदृश्य बन कर.
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इस यात्रा में
इस दूर तक पसरे बीहड़ में
मुझे रह-रह कर एक नदी मिल जाती है
तुमने नहीं देखा होगा
नमी से अघाई हवा का
बरसाती सम्वाद
बारिश नहीं लाता
उसके अघायेपन में
ऐंठी हुई मिठास होती है
अब तक जो चला हूँ
अपने भीतर ही चला हूँ
मीलों के छाले मेरे तलवों
मेरी जीभ पर भी हैं
मेरी चोटों का हिसाब
तुम्हारी अनगिनत जय कथाओं में जुड़ता होगा
इस यात्रा में लेकिन ये नक्शे हैं मेरी खातिर
उन गुफाओं तक जहाँ से निकला था मैं
इन छालों पर
मेरी शोध के निशान हैं
धूल हैं तुम्हारी यात्राओं की इनमें
सुख के दिनों में ढहने की
दास्तान है
जब पहुँचूँगा
खुद को लौटा हुआ पाऊँगा
सब कुछ गिरा कर
लौटना किसी पेड़ का
अपने बीज में
साधारण घटना नहीं
यह अजेय साहस है
पतन के विरुद्ध
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मौसी
(आभा मौसी के असामयिक निधन पर)
वेटिंग रूम में
सबकुछ छोड़ आये अजीब चेहरे हैं
त्वचा चू रही है और जमीन गायब
समय की शुरुआत से जमा हुआ
एक बर्फीला वॉल क्लॉक व्यंग्य मुद्रा में
टेढ़ा टँगा हुआ
सिहर सिहर कर अपनी सुई हिलाता है
‘यह कौन सा प्लेटफॉर्म है?’
एक भावशून्य बिना चेहरे का बूढ़ा
पूछ कर चला जाता है
उसे कहीं नहीं जाना
बस पूछ कर टेढ़ी हँसी हँसता है
और दूसरों को यहाँ से कहीं दूर भेज देता है
तभी एक व्यस्त ट्रेन तेजी से आती है
सीटी बजाती हुई
उसमें लदे हैं
नीले भावहीन चेहरे पथरीली मूर्छा में
नीली आँखें नीले शून्य में टिकी हुर्इं
नीली पटरी पर नीली ठण्ढक में निकल जाती है
नीली ट्रेन
मैं हाँफता हुआ वेटिंग रूम में पहुँचता हूँ
‘यह कौन सा प्लेटफॉर्म है?’
वह पूछता है
और खिखिया कर चला जाता है
नीली धुन्ध में
जमीन नहीं है वॉल क्लॉक अकड़ा हुआ
वेटिंग रूम खाली
तुम जा चुकी हो नीला चेहरा लगाकर
उस व्यस्त ट्रेन में
तुम्हें पुकार रहा हूँ बेतहाशा
मैं वह गोद ढूँढ़ रहा हूँ जिसमें मेरा बचपन सहेजा हुआ है
मैं वो आवाज खोज रहा हूँ मुझे पुकारती हुई
मैं वह हृदय तलाश रहा हूँ जिसमें सुवूâन से था
अब तक
मैं खोज रहा हूँ तुम्हें
और जहाँ जहाँ तुम हो सकती थी
मौसी!
वहाँ नीला पथरीला सन्नाटा है
विलाप के बाद छूटा हुआ शून्य है
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रात के विंड चाइम्स
चाँद पर
धुंध वही
जो हममें हम पर है
तिलस्मी सच सा
जब बागी नींदों के बीच
कुछ कुछ हमारी उमर की रात
एक सपना हौले से उछाल कर लोक िलेती है
रख लेती है आँखों की ओट में
समंदर खिलती उमर के जज़्बात सा
यह मैं हूँ
या रात का चाँद है
सागर है या तुम हो
कुछ कह सकोगी अभी अपनी नींद से अचानक उठ कर
हटा कर उस लट को
जो तुम्हें चूमने की बेतहाशा ज़िद में
तुम्हारे गालों तक बिखर आई है
सुनो वहीं से यह संवाद
हवा सागर और चाँद का
विंड चाइम्स के हृदय से उठती ध्वनि का
सुनो कि इन सबको ढकता यह अधेड़ बादल
कैसे रहस्य का दुर्लभ आकर्षण पैदा करता है
होने के कगार पर नहीं-सा वह
एक चौखट है और उसके पार धुंध है
उस धुंध के पार यह चाँद है
उस चाँद पर हिलोरें मारता सागर है सागर में तुम और तुम में बहती यह हवा
जो मेरे कान में साँय साँय हो रही है
मेरे गालों पर अपने नमकीन निशान लिखती हुई
निर्गुन रे मेरा मन जोगी
यह जन्म है उस क्षण का जब
मौन मात्र बच जाता है
फिर छुपा चाँद का मक्खनी रंग
फिर धूसर उत्तेजित लिपट गया वह नाग उस पर
आते आषाढ़ की इस रात में
फिर कुहक उठी नशे में हवा
और सागर बाहर भीतर खलबल है
साँसों में गंधक का सोता
उठता है
बुलबुलों सा विश्व
मायावी आखेट पर है
रात के इस
नाग केसर वन में
जिसमें मीठी धुन है घंटियों की
हज़ारों विंड चाइम्स बजते हैं
सागर में बादल में चाँद में
मुझमें और
रात के इस पहलू में जहाँ
दुनिया नहीं आ पाती है कभी
जिसके पहले और एकल बाशिंदे
मैं हूँ और तुम हो.
*बिहार में बोली जाने वाली अंगिका भाषा में `लोक लेने’ का वही अर्थ है जो क्रिकेट के खेल में `वैâच कर लेने’ का अर्थ होता है.
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शोक : २ मई २०१६
रह रह कर तहों से
रिस आता है शोक
घटाटोप में स्तब्ध धरती
रह रह कर सिहरती है जैसे
एक और स्तम्भ ढहता है
एक और उजाड़
मुँह फाड़े उग आता है
अकथ धारों कन्दरों स्मृतियाँ उगलती हैं
एक सुई धँसी मिलती है
अमर भंगुरता के रहस्य की नस में
नीम बेहोशी या आधी जाग
जहाँ से भी देखूँ
यह वृत्त अछोर ही रहता है
एक कुआँ आँख फाड़े अपनी तल से
आकाश को देखता है
एक आकाश उस कुअें में समा जाना चाहता है
निर्वात का यह बंजर मौन
साँस के अन्धेरे में
देह के भोजपत्र पर
किसी आदिम लिपि में लिखता है
एक अक्षर अन्त का
तुम्हारी जीवनी स्मृति में भर कर
हम उसमें पढ़ते हैं
अन्त का अनन्त।
बदमाश हैं फुंहारे
(मरीन ड्राइव, मुम्बई)
बदमाश हैं फुंहारे
नशे का स्प्रे उड़ा कर होश माँगती हैं
गरम समोसे सी देह पर
छन्न्
उंगली धर देती है आवारा बूँद
जिसकी अल्हड़ हँसी में
होंठ दबते ही आकाशी दाँत चमक उठते हैं
हुक्के गुड़गुड़ाता है आसमानी सरपंच
खाप की खाट पर
मत्त बूँदों की आवारा थिरकन
झम झम झनन ननन नन झन झनझन
नियम की किताबें गल रही हैं
हो रहे
क़ायदे बेक़ायदा!
अल-क़ायदा?
तू भी आ यार
इन्सान हो ले
और यह पेड़ जामुन का
फुटपाथ पर!
बारिश की साँवली कमर पर
हाथ धर कर
उसकी गर्दन पर
रक्त-नीलित चुम्बनों का दंश जड़ कर
झूमता है
कुढ़ा करिया कुलबुलाया बादल
गला खखारता फ्लैश चमका रहा है
क़ाफिया कैसे मिलाऊँ तुमसे
जब कि मुक्त-छन्द-मौसम गा रहा है
अपनी आज़ाद बहर में
चलो भाप बन कर उड़ जायें
मेघ छू आयें
घुमड़ जायें भटक जायें दिशायें भूल जायें
नियम गिरा आयें कहीं पर
मिटा दें अपनी डिस्क की मेमोरी
अनन्त टैराबाइट्स की संभावना के
नैनो चिप के वामन बन
चलो कुकुरमुत्ते तले छुप जायें
बारिश को ओस के घर चूम आयें
शाम की आँख पर सनगॉग्स रख दें
बरगद के जूड़े में कनेर टाँक
चलो उड़ चलें
अनेकों आयाम में बह चलें
झमकती झनझनाहट के बेकाबूपन में
देह को बिजली सी चपल कर
चमक जायें कड़क जायें लरज़ जायें
बरस जायें प्रेम बन कर
रिक्त हो जायें
तुम इसे अमृत कहो
और मैं आसव
यहाँ पर
सब एक है
बदमाश हैं फुंहारे
मरीन ड्राइव पर
वाइट वाइन बरसाती हुर्इं।
आधी रात का बुद्ध
यह मोरपंखी सजावट की गुलाबी मवाद
जिसे तुम दुनिया कहते हो
नहीं खींच सकी उसे
उसने डुबकियाँ लगाई जिस्म-ओ-शराब में
मरक़ज़-ओ-माहताब में
मशरिक-ओ-मग़रिब में
लेकिन रात ढले उग आया वह
अपने पश्चिम से
वह अपने रीते में छलक रहा है
बह रहा है अपने उजाड़ में
वह अपने निर्जन का अकेला बाशिंदा
अपने एकान्त में षड्ज का गंभीर गीत है
रात के चौथे आयाम की अकेली भीड़ है वह
अपने घावों में ज्ञान के बीज रोपता
रंगता है बेसुध
बड़े कैनवास के कालेपन को
काले पर रंग खूब निखरता है
वह जान चुका है
रिश्तों की खोखल में झाँक कर
वह जोर से `हुआऽऽहू’ चिल्लाकर मुस्कुरा देता है
हट जाता है वहाँ से
असार के गहन सार में उतर कर
उभरता है वहाँ से
निश्चेष्ट निष्कपट निष्काम
दुख प्रहसन की तरह मिलते हैं उससे
इस पहर
पीड़ों बहनों की तरह मुँहजोर
उसे मतलब में छुपा `बे-मतलब’ मिल जाता है अचानक
लिखता है वह अपना सत्य
अपनी कविता उपेक्षित
दिन हुए वह कहता है सच्चे मन की अपनी बात
दिन चढ़े उसे गलत समझ लिया जाता है
दिन भर दोस्तों और दुनिया के हाथों ठगा जा कर
चोट खाया
आधी रात गये बुद्ध हुआ वह
मुआफ़ कर देता है सबको।
जगत की लघुता पर मुस्कुराता है वह
और उसे भूल जाता है।
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इसमें सत्य नहीं है
अस्तित्व की
कुछ कौड़ियाँ मैंने बचा रखी है
भविष्य की किसी आलमारी में
बगूलों से ये दिन
जितने दिखते हैं
उतने सपेâद नहीं हैं
इन मक्कार उदासियों
और
निराशाओं से
उलझते हुए
मुझे यकीन हुआ कि
सत वह नहीं है
जिसे बताया जा रहा है
और जिसके विरुद्ध
युद्ध चल रहा है
सच-
मेरी दोस्त
तुम जानती हो-
वही और बिल्कुल वैसा ही है
जो उन भोले दिनों में हमारे बीच था
जब समाज
संस्कार और रिवाज़
हमें परिभाषित नहीं करते थे
जहाँ-जहाँ
परिभाषायें गर्इं
यन्त्रणा के गुह्य-द्वार खुले
सच मरा
हमारी लाशों पर
सच की लड़ाई चल तो रही है
लेकिन तथ्य जानता है कि
इनमें से कोई भी
सच नहीं है