Poetrywala Foundation Poetrywala Foundation Online Blog 2022-10-18T09:40:15Z http://foundation.virtuereal.com/feed/atom/ WordPress http://foundation.virtuereal.com/wp-content/uploads/2022/07/Untitled-design.png Tushar Dhaval <![CDATA[हिंदी कविता – तुषार धवल]]> http://foundation.virtuereal.com/?p=5187 2022-10-18T09:40:15Z 2022-10-18T09:31:32Z

(कवी-चित्रकार)

समकालीन हिन्दी कविता का एक महत्त्वपूर्ण स्वर। कवितायें देश की

लगभग सभी भाषाओं, अँग्रेजी और जर्मन में अनुदित हुई हैं।

 

पुस्तकें :

१. पहर यह बेपहर का (२००९) राजकमल प्रकाशन, दिल्ली

२. ये आवाज़ें कुछ कहती हैं (२०१४) दखल प्रकाशन ढयह १८ दीर्घ कविताओं का संग्रह हैल

३. मैजिक मुहल्ला (दो खण्डों में) (२०१९) वाणी प्रकाशन, दिल्ली

ढस्व. दिलीप चित्रे की मराठी और अंग्रेजी कविताओं का हिन्दी में अनुवाद

 

मक्कार चुप्पियाँ -१

जब मनुष्यता की बात हो रही थी

फ़लस़फे ओढ़ कर

तुम

अट्टहास कर रहे थे

दुश्मन के कन्धों पर लेट कर

 

कन्धों से पेट

पेट से ज़मीन तक

तुम लेटे रहे

 

तुम जिस आज़ादी की गुहार लगाते थे

उसमें हत्या वाजिब थी

झूठ सत्य था

गद्दारी ही वफादारी थी

इतनी परतें थीं तुम्हारी आवाजों में

कि

मैं

जिसकी हत्या की जा रही थी

वही हत्यारा घोषित हो गया

 

मैं अभियोगों में घिरा हूँ

विश्व मेरे विरुद्ध है आज

मानवता के ध्वज उठाये तुम

हत्यारों का कीर्तन कर रहे

 

सड़क पर गिरी मेरी आँतों पर

तुम्हारी यह चुप्पी

मक्कार है

 

मक्कार हैं ये चुप्पियाँ

तुम्हारी

तुम्हारे नियोजित और निरुद्ध

आडम्बर मक्कार हैं!

—————————————-

 

जो कहेगा, मारा जायेगा

मेरी जेब में बामियान है

आँखों में सच,

भीतर तूफान

 

सिर में धँसा है एक ध्वज

 

मेरे हाथों में दिये गये हैं

कई रंग और

जुबाँ पर भाषायें उन रंगों की

 

रंग चालाक हैं

सच नहीं कहते

पक्षधरता है अधकथन

 

इस युद्ध में

बचेगा वही जो रंग चुनेगा

 

जो सच कहेगा, मारा जायेगा

—————————————-

लौटता हूँ

लौटता हूँ उसी ताले की तरफ

जिसके पीछे

एक मद्धिम अन्धेरा

मेरे उदास इन्तजार में बैठा है

 

परकटी रोशनी के पिंजरे में

जहाँ फड़फड़ाहट

एक संभावना है अभी

 

चीज-भरी इस जगह से

लौटता हूँ

उसके खालीपन में

एक वयस्क स्थिरता

थकी हुई जहाँ

अस्थिर होना चाहती है

 

मकसद नहीं है कुछ भी

बस लौटना है सो लौटता हूँ

चिंतन के काठ हिस्से में

 

एक और भी पक्ष है

जहाँ

सुने जाने की आस में 

लौटता हूँ

लौटने में

इस खाली घर में

 

उतार कर सब कुछ अपना

यहीं रख-छोड़ कर

लौटता हूँ अपने बीज में

उगने के अनुभव को `होता हुआ’

देखने

 

लौटता हूँ

इस हुए काल के भविष्य में

———————————————

मेरी गोद में

इस गोद में सेज है

तुम्हारी

उड़ानों की उड़नपट्टी है

यहाँ

तुम्हारे नरम सपनों का जंगल है

जिसमें संसार की पगडंडियाँ

घुसते ही मिट जाती हैं

उस जंगल में

टिमटिमाती कस्तूरी मणियाँ हैं

सुकुमार जल पर पैâली महकीली लतायें हैं

जो अपने ही ढब के पूâल ओढ़ी हुई

नाज़ुक सी ऊँघ में खिल रही हैं

वहाँ हवा में तैरती गुलाबी मछलियों की

किलकारियाँ हैं

पंछियों का गुंजार तुम्हारे हास की

थपक पर थिरकता है

वहाँ

 

उस जंगल में बस्ती है

मेरी आदिम जातियों की

उनके आग और काँटों के संस्मरण हैं

पूâलों की गुलगुली छाती में

तपने और जूझने के

दाँत भींचे एकटक आईने हैं

किचकिची और लिजलिजी पीड़ायें हैं

ईमानदारी पर मिली बदनामियों की

ग्लानियों में आत्मदहन के क्षण हैं

मनुष्य होने के संघर्ष में

अनुभवों की थाती है

 

उसी वन में मेरा शुद्ध आत्मबोध है

अनगढ़ अशब्द अपरिभाषित

और स्फटिक की चमकती खोह है

चेतस् ऊर्जा का हस्ताक्षर है वहाँ

मेरा तुम्हारा होना

 

मेरी गोद में तुम हो

और तुममें एक सुकुमार उनींदी 

गोद है

जिसमें मेरा होना

हो रहा है!

—————————————-

नदी का अदृश्य

नदी का अदृश्य होना

यहाँ होता है!

मेरे कन्धे पर रो कर चुप हुआ तुम्हारा चेहरा

और तुम्हारी पीठ पर

तिरोह में ठुमकती थपकियाँ

एक अदृश्य नदी बह रही है

हमारे बीच

मेरी रातों में अक्षर तैरते हैं

अपने शब्दों से मुक्त हो कर

उनकी मुक्तियों में यह नदी भी मुक्त होती है

मुक्त होते हैं हम और जीवन

अर्थ पाने लगता है

 

यह अर्थ का संधान है हमारे बीच

हम एक नदी हैं

बहते हुए चले जायेंगे कहीं दूर

उस नदी से नाम हटा देंगे

होने देंगे उसे वैसी ही जैसी कि वह है

अपने बहने में

हम हटा देंगे

उसको जकड़ती व्याख्यों

मन्त्रों से निकाल कर उनके भाव रख लेंगे

त्याग देंगे शेष आडम्बर

रहेंगे अपने बीज भाव में बहते हुए

अपनी लहर को हर लहर से जोड़

बहेंगे सब के संग बिना कछारों के

उसी दिशा में मुक्त

नदी का अदृश्य बन कर.

——————————————

इस यात्रा में

इस दूर तक पसरे बीहड़ में

मुझे रह-रह कर एक नदी मिल जाती है

तुमने नहीं देखा होगा

 

नमी से अघाई हवा का

बरसाती सम्वाद

बारिश नहीं लाता

उसके अघायेपन में

ऐंठी हुई मिठास होती है

 

अब तक जो चला हूँ

अपने भीतर ही चला हूँ

मीलों के छाले मेरे तलवों

मेरी जीभ पर भी हैं

 

मेरी चोटों का हिसाब

तुम्हारी अनगिनत जय कथाओं में जुड़ता होगा

इस यात्रा में लेकिन ये नक्शे हैं मेरी खातिर

उन गुफाओं तक जहाँ से निकला था मैं

इन छालों पर

मेरी शोध के निशान हैं

धूल हैं तुम्हारी यात्राओं की इनमें

सुख के दिनों में ढहने की

दास्तान है 

 

जब पहुँचूँगा

खुद को लौटा हुआ पाऊँगा

सब कुछ गिरा कर

 

लौटना किसी पेड़ का

अपने बीज में

साधारण घटना नहीं

यह अजेय साहस है

पतन के विरुद्ध

——————————————

मौसी

(आभा मौसी के असामयिक निधन पर)

वेटिंग रूम में

सबकुछ छोड़ आये अजीब चेहरे हैं

त्वचा चू रही है और जमीन गायब

समय की शुरुआत से जमा हुआ

एक बर्फीला वॉल क्लॉक व्यंग्य मुद्रा में

टेढ़ा टँगा हुआ

सिहर सिहर कर अपनी सुई हिलाता है

 

‘यह कौन सा प्लेटफॉर्म है?’

एक भावशून्य बिना चेहरे का बूढ़ा

पूछ कर चला जाता है

उसे कहीं नहीं जाना

बस पूछ कर टेढ़ी हँसी हँसता है

और दूसरों को यहाँ से कहीं दूर भेज देता है

तभी एक व्यस्त ट्रेन तेजी से आती है

सीटी बजाती हुई

उसमें लदे हैं

नीले भावहीन चेहरे पथरीली मूर्छा में

नीली आँखें नीले शून्य में टिकी हुर्इं

नीली पटरी पर नीली ठण्ढक में निकल जाती है

नीली ट्रेन

मैं हाँफता हुआ वेटिंग रूम में पहुँचता हूँ

‘यह कौन सा प्लेटफॉर्म है?’

वह पूछता है

और खिखिया कर चला जाता है

नीली धुन्ध में

जमीन नहीं है वॉल क्लॉक अकड़ा हुआ 

वेटिंग रूम खाली

तुम जा चुकी हो नीला चेहरा लगाकर

उस व्यस्त ट्रेन में

तुम्हें पुकार रहा हूँ बेतहाशा

मैं वह गोद ढूँढ़ रहा हूँ जिसमें मेरा बचपन सहेजा हुआ है

मैं वो आवाज खोज रहा हूँ मुझे पुकारती हुई

मैं वह हृदय तलाश रहा हूँ जिसमें सुवूâन से था 

अब तक

 

मैं खोज रहा हूँ तुम्हें

और जहाँ जहाँ तुम हो सकती थी

मौसी!

वहाँ नीला पथरीला सन्नाटा है

विलाप के बाद छूटा हुआ शून्य है

——————————————-

रात के विंड चाइम्स

चाँद पर

धुंध वही

जो हममें हम पर है

तिलस्मी सच सा

 

जब बागी नींदों के बीच

कुछ कुछ हमारी उमर की रात

एक सपना हौले से उछाल कर लोक िलेती है

रख लेती है आँखों की ओट में

समंदर खिलती उमर के जज़्बात सा

 

यह मैं हूँ

या रात का चाँद है

सागर है या तुम हो

कुछ कह सकोगी अभी अपनी नींद से अचानक उठ कर

हटा कर उस लट को

जो तुम्हें चूमने की बेतहाशा ज़िद में

तुम्हारे गालों तक बिखर आई है

सुनो वहीं से यह संवाद

हवा सागर और चाँद का

विंड चाइम्स के हृदय से उठती ध्वनि का

सुनो कि इन सबको ढकता यह अधेड़ बादल

कैसे रहस्य का दुर्लभ आकर्षण पैदा करता है

होने के कगार पर नहीं-सा वह

एक चौखट है और उसके पार धुंध है

उस धुंध के पार यह चाँद है

उस चाँद पर हिलोरें मारता सागर है सागर में तुम और तुम में बहती यह हवा

जो मेरे कान में साँय साँय हो रही है

मेरे गालों पर अपने नमकीन निशान लिखती हुई

निर्गुन रे मेरा मन जोगी

 

यह जन्म है उस क्षण का जब

मौन मात्र बच जाता है

 

फिर छुपा चाँद का मक्खनी रंग

फिर धूसर उत्तेजित लिपट गया वह नाग उस पर

आते आषाढ़ की इस रात में

फिर कुहक उठी नशे में हवा

और सागर बाहर भीतर खलबल है

साँसों में गंधक का सोता

उठता है

बुलबुलों सा विश्व

मायावी आखेट पर है

 

रात के इस

नाग केसर वन में

जिसमें मीठी धुन है घंटियों की

हज़ारों विंड चाइम्स बजते हैं

सागर में बादल में चाँद में

मुझमें और

रात के इस पहलू में जहाँ

दुनिया नहीं आ पाती है कभी

जिसके पहले और एकल बाशिंदे

मैं हूँ और तुम हो.

 

*बिहार में बोली जाने वाली अंगिका भाषा में `लोक लेने’ का वही अर्थ है जो क्रिकेट के खेल में `वैâच कर लेने’ का अर्थ होता है.

—————

शोक : २ मई २०१६

रह रह कर तहों से

रिस आता है शोक

घटाटोप में स्तब्ध धरती

रह रह कर सिहरती है जैसे

एक और स्तम्भ ढहता है

एक और उजाड़

मुँह फाड़े उग आता है

 

अकथ धारों कन्दरों स्मृतियाँ उगलती हैं

एक सुई धँसी मिलती है

अमर भंगुरता के रहस्य की नस में

 

नीम बेहोशी या आधी जाग

जहाँ से भी देखूँ 

यह वृत्त अछोर ही रहता है

 

एक कुआँ आँख फाड़े अपनी तल से 

आकाश को देखता है

एक आकाश उस कुअ‍ें में समा जाना चाहता है

 

निर्वात का यह बंजर मौन

साँस के अन्धेरे में

देह के भोजपत्र पर

किसी आदिम लिपि में लिखता है

एक अक्षर अन्त का

 

तुम्हारी जीवनी स्मृति में भर कर

हम उसमें पढ़ते हैं

अन्त का अनन्त।

 

 

बदमाश हैं फुंहारे

(मरीन ड्राइव, मुम्बई)

 

बदमाश हैं फुंहारे

 

नशे का स्प्रे उड़ा कर होश माँगती हैं

गरम समोसे सी देह पर

छन्न्

उंगली धर देती है आवारा बूँद

जिसकी अल्हड़ हँसी में

होंठ दबते ही आकाशी दाँत चमक उठते हैं

 

हुक्के गुड़गुड़ाता है आसमानी सरपंच

खाप की खाट पर

मत्त बूँदों की आवारा थिरकन

झम झम झनन ननन नन झन झनझन

नियम की किताबें गल रही हैं

हो रहे

क़ायदे बेक़ायदा!

 

अल-क़ायदा?

तू भी आ यार

इन्सान हो ले

 

और यह पेड़ जामुन का

फुटपाथ पर!

 

बारिश की साँवली कमर पर

हाथ धर कर

उसकी गर्दन पर

रक्त-नीलित चुम्बनों का दंश जड़ कर

झूमता है

कुढ़ा करिया कुलबुलाया बादल

गला खखारता फ्लैश चमका रहा है

 

क़ाफिया कैसे मिलाऊँ तुमसे

जब कि मुक्त-छन्द-मौसम गा रहा है

अपनी आज़ाद बहर में

 

चलो भाप बन कर उड़ जायें

मेघ छू आयें

घुमड़ जायें भटक जायें दिशायें भूल जायें

नियम गिरा आयें कहीं पर

 

मिटा दें अपनी डिस्क की मेमोरी

अनन्त टैराबाइट्स की संभावना के

नैनो चिप के वामन बन

चलो कुकुरमुत्ते तले छुप जायें

बारिश को ओस के घर चूम आयें

 

शाम की आँख पर सनगॉग्स रख दें

बरगद के जूड़े में कनेर टाँक

चलो उड़ चलें

अनेकों आयाम में बह चलें

झमकती झनझनाहट के बेकाबूपन में

देह को बिजली सी चपल कर

चमक जायें कड़क जायें लरज़ जायें

बरस जायें प्रेम बन कर

रिक्त हो जायें

 

तुम इसे अमृत कहो

और मैं आसव

यहाँ पर

सब एक है

 

 

बदमाश हैं फुंहारे

 

मरीन ड्राइव पर

वाइट वाइन बरसाती हुर्इं।

 

आधी रात का बुद्ध

 

यह मोरपंखी सजावट की  गुलाबी मवाद

जिसे तुम दुनिया कहते हो

नहीं खींच सकी उसे

उसने डुबकियाँ लगाई जिस्म-ओ-शराब में

मरक़ज़-ओ-माहताब में

मशरिक-ओ-मग़रिब में

लेकिन रात ढले उग आया वह

अपने पश्चिम से

 

वह अपने रीते में छलक रहा है

बह रहा है अपने उजाड़ में

वह अपने निर्जन का अकेला बाशिंदा

अपने एकान्त में षड्ज का गंभीर गीत है

रात के चौथे आयाम की अकेली भीड़ है वह

अपने घावों में ज्ञान के बीज रोपता

 

रंगता है बेसुध

बड़े कैनवास के कालेपन को

काले पर रंग खूब निखरता है

वह जान चुका है

 

रिश्तों की खोखल में झाँक कर

वह जोर से `हुआऽऽहू’ चिल्लाकर मुस्कुरा देता है

हट जाता है वहाँ से

असार के गहन सार में उतर कर

उभरता है वहाँ से

निश्चेष्ट निष्कपट निष्काम

 

दुख प्रहसन की तरह मिलते हैं उससे

इस पहर

पीड़ों बहनों की तरह मुँहजोर

उसे मतलब में छुपा `बे-मतलब’ मिल जाता है अचानक

 

लिखता है वह अपना सत्य

अपनी कविता उपेक्षित

दिन हुए वह कहता है सच्चे मन की अपनी बात

दिन चढ़े उसे गलत समझ लिया जाता है

 

दिन भर दोस्तों और दुनिया के हाथों ठगा जा कर

चोट खाया

आधी रात गये बुद्ध हुआ वह

मुआफ़ कर देता है सबको।

 

जगत की लघुता पर मुस्कुराता है वह

और उसे भूल जाता है।

—————————————–

इसमें सत्य नहीं है

अस्तित्व की

कुछ कौड़ियाँ मैंने बचा रखी है

भविष्य की किसी आलमारी में

 

बगूलों से ये दिन

जितने दिखते हैं

उतने सपेâद नहीं हैं

 

इन मक्कार उदासियों

और

निराशाओं से

उलझते हुए

मुझे यकीन हुआ कि

सत वह नहीं है

जिसे बताया जा रहा है

और जिसके विरुद्ध

युद्ध चल रहा है

 

सच-

 

मेरी दोस्त

तुम जानती हो-

 

वही और बिल्कुल वैसा ही है

जो उन भोले दिनों में हमारे बीच था

जब समाज

संस्कार और रिवाज़

हमें परिभाषित नहीं करते थे

 

जहाँ-जहाँ

परिभाषायें गर्इं

यन्त्रणा के गुह्य-द्वार खुले

सच मरा

 

हमारी लाशों पर

सच की लड़ाई चल तो रही है

लेकिन तथ्य जानता है कि

इनमें से कोई भी

सच नहीं है

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admin http://foundation.virtuereal.com <![CDATA[आबरा का डाबरा]]> http://foundation.virtuereal.com/?p=5176 2022-10-18T09:30:15Z 2022-10-18T09:22:21Z

मार्क्सवादी समीक्षा

मुंबई मराठी ग्रंथ संग्रहालयाच्या आवारात दिगंबर पाध्ये कपडे घालून फिरताना आढळून येतात या कुचेष्टेपासून ते आजचे आघाडीचे जागतिक विचारवंत, डाव्यांचे पोस्टर चाचा स्लावोज झिझेक यांना सेलिब्रेटी स्टेट्स मिळेपर्यंत मार्क्सवादी समीक्षेत बरीच उलाढाल झालीये.

प्रयोग करणार्‍या नाटक कादंबर्‍या, अब्राह्मणी सौंदर्यशास्त्राला प्रमाण मानणारे साहित्य, भांडवलदारी अत्तरात घमघमून नाकात जाणारे नवदोत्तरी साहित्य, गावातले जिणे, हाल, उपेक्षा, पाऊस-पाणी या रीपीटेडली हमखास यशस्वी कन्टेन्टचे दळण जुन्या गिरणीत दळणारे ग्राम्य साहित्य, तेच ते आणि तेच ते प्रादेशिक, धर्मीय, वैचारिक साहित्य, सोशल माध्यमातून दररोज मनावर वेडझवे परिणाम करणारे कन्फेशन, प्रेम, निसर्ग, अस्तित्व यांत लोळणारे साहित्य अशा एकूण सर्व साहित्याला आज मार्क्सवादी समीक्षा एक नवा दृष्टिकोण देत आहे. सर्वांच्या तळाशी पैशाचा व्यवहार असतो, हे सुदैवाने साहित्यातही खरे आहे याचा दुर्दैवाने बर्‍याच श्रीमंत/ गरीब लेखक/ समीक्षक/ प्राध्यापक आणि वाचकांना विसर पडलाय.

—–एक विशिष्ट चाहतावर्ग असलेले निवृत्त प्राध्यापक रामचंद्र (मित्रांसाठी रॉम) बोराडे यांनी त्यांच्या नातवाच्या बेबी शॉवरप्रसंगी केलेल्या औपचारिक भाषणातील एक परिच्छेद.

G O A T (ग्रेटेस्ट ऑफ ऑल टाइम्स)

आपल्या मोबाइलमध्ये लॅपटॉपमध्ये किंवा कुठल्याही स्मार्ट डिव्हाइसमध्ये हे गोट बसूनच असतात. मेसीजेस, पोस्ट्स, कॉमेंट्स, फोटोजमधून हे दिवसातून कमीत कमी दहा वेळा झलक मारतात. त्यांचे सुमार फॉलोवर्स मग त्यांच्यावर प्रेमाचा वर्षाव करत सुटतात किंवा त्यांच्या मेसेज/ पोस्टवर आपली जाडजूड अक्कल चालवतात, दुजोरा देतात, तारिफोके पूल्स बांधतात; गोट कृतकृत्य. गोटने जर झलक मारली आणि कोणी त्याला भाव दिला नाही विंâवा निगेटिव्ह लिहिले की गोट पुâल्ल डिप्रेशन मोडमध्ये… लोकांना डिवचून डिवचून, धमक्या देत रिस्पॉन्स देण्यास भाग पाडतो. एवूâण काय, समझ गये ना भाई बेहेन लोग?

या सुमारांच्या गोटचे दैनिक समागम बर्‍याचदा दुसर्‍या गोटचे लोंबते आस्वादतात पण आपसांत तो गोट आपल्या गिनतीतच नाही असे भासवतात. फूल्ल एन्जॉय! आपला गोटच खरा बॉस!

होमवर्क

सौरभ सकाळपासून‌ गप्पगप्प होता. नेहमीप्रमाणे हुंदडत नव्हता. स्मुदी पण घेतली नाही थिओब्रोमाची पेस्ट्री होती त्यालाही हात लावला नाही. एकटा एकटा विचारात गढलेला.

अस्वस्थ. मधूनच खोलीत जायचा काहीतरी करायचा आणि परत इकडेतिकडे येरझा‍र्‍या घालायचा. लर्न फ्रॉम होम करीन म्हणाला. शाळेतपण गेला नाही. मनालीमावशीनी सॅनहौसेनी पाठवलेली ड्रॉयफ्रूट्सही तशीच पडलेली होती. तीही खाईना. सतत चुळबुळ. सतत जा ये. सतत इकडेतिकडे करणं. स्वत:शीच बोलणं. दोन खुच्र्यांमधून उडी मारल्याची अ‍ॅक्शन करणं असं सगळं चालू होतं. उद्याचे नकुल-सहदेव घडवणा‍र्‍या अर्जुन अकॅडेमीत शिकवायला जाणारा एकलव्यदादा हा त्याच्या भूमी आणि ओवी ह्या समिधाच्या शेजारी राहाणा‍र्‍या एक्सगर्लफ्रेन्ड्सना भेटायला जाताना सौरभला हायहॅलो करायला आला तेव्हा सगळा उलगडा झाला. सौरभचे मित्र पॉटी पटेल आणि गॅनी गायकैवारी (पॉटीचं नाव परमबीर आणि गॅनी फॉर गंधार). दोघांच्या मित्राच्या मित्राच्या मित्राच्या क्लासमध्ये करंडकवीर पुरस्काराचे वितरण करायला एक नटुरामकाका आला होता. त्याने सगळ्यांना दहशत वाढवायचा आग्रह केला.

जेवढे दहशतीचे पॉइंट मिळतील ते सगळे शाळा सोडताना रिडीम करता येतील असंही सांगितलं होतं. ते दहशतीचे पॉइंट कसे गोळा करायचे? शस्त्र कुठून मिळवायची? हल्ले

कुणावर, कसे, कुठे आणि काय कारण काढून करायचे? ह्या चिंतेत सौरभ होता असं अर्जुन बोधिनीत शिकणा‍र्‍या एकलव्यदादानी खुलासेवार सांगितल्यावर सगळ्यांचा जीव भांड्यात पडला. दहशत वाढवायची तर रणबीर सिंगला मुख्य भूमिकेत घेऊन स्वप्नातल्या ट्रेनने फिरणा‍र्‍या टेंक्षेमामावर बायोपिक करायला सांगूया आपण महेश कासकरकाकांना, पण आत्ता तरी तू नि:संकोचपणाने शाळेत जा असं त्याला सगळ्यांनी समजावलं. बरोबर डबा, खाऊ आणि करंडकवीर टेंक्षेकाका बाळगतो ते शस्त्र म्हणजे धारदार तळपती दुटोकी टूथपीक दिल्यावर सौरभच्या चेहे‍र्‍यावर उग्रनिरागस हास्य फूललं. यहाँ का टूथपीक टूथपीक बायोपिक है! अशा घोषणेने सौरभचं मन दुमदुमून गेलं… आणि स्वारी शाळस्थ झाली…

लोका सांगे

(पुढच्या वेळी, EDotic बहूचा गालगुच्चा)

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Sanjeev Khandekar <![CDATA[दीर्घ कविता – संजीव खांडेकर]]> http://foundation.virtuereal.com/?p=5167 2022-10-18T09:20:56Z 2022-10-18T09:09:01Z

संजीव खांडेकर यांनी आशय, आकार आणि अविष्कार अशा तिन्ही अंगांनी सातत्याने वेगळी कविता लिहली आहे. त्यामुळे त्यांच्या कवितेत कवितेचा आकृतीबंध, तिची लय व गत, तिचा पोत व बाज असा विविध पैलूंमधे बदलाचे नवनवे प्रयोग स्पष्ट जाणवतात. ते दृश्य कलावंत असल्यामुळे असेल कदाचित, परंतु त्यांच्या कविता वाचकांना सतत एक दृश्यभानही देतात. त्यामुळेच त्यांच्या कवितेचे अनेक नाट्य व रंगकर्मींनी नाट्य, परफॉरमन्स, वा समूह वाचनाचे प्रयोग केलेले दिसतात. जागतिकीकरण, मुक्त बाजारपेठ, माहिती तंत्रज्ञान, व जनूकशास्त्र अशा क्षेत्रांमधे झालेल्या विस्तृत व सखोल परिणांमांनी सतत बदलणार्‍या जगाचे प्रतिबिंबच नव्हे तर अशा बदलांना अनेकदा द्रष्टेपणाने सामोरे जाण्याचे धाडस त्यांची कविता दाखवते. स्वाभाविकच या कवितेत आपल्याला, सहसा अन्यत्र न आढळणार्‍या विषयवस्तूंचा भवताल स्पष्ट जाणवतो. स्टॉक मार्वेâट, कॉरपोरेटायझेशन, खाजगीकरण, वातावरण बदल, जेंडर फ्लुईडिटी, खनिज तेल, पेट्रोल, डॉलर, डाव्होस, आभास, या व अशा अनेक नव्या विषयांची, नवनव्या आकारांची, व नवअर्थछटांची नवी प्रतीमासृष्टी त्यांची कविता उभी करू पाहते. साहजिकच अशा प्रयत्नात पारंपरिक अविष्कार वा प्रतिमांची आपोआप मोडतोड होते.

सुमारे वीस वर्षांपूर्वी प्रथम व त्यानंतर लिहिलेल्या त्यांच्या कवितेत त्यांनी गेमस्केप व व्हिडीओ गेमसच्या कथनशैलीचा सहज व विनासायास केलेला वापर हे मराठी कवितेतले तरी पहिलेच व एकमेव उदाहरण असावे.

या अंकात त्यांची नवी कविता ‘चंद्र  च्युइंगम’ प्रसिद्ध होत आहे. पर्यावरण, वातावरण बदल, आणि त्याचे राजकीय व तात्विक भान नव्या प्रतिमांसह मांडणारी ही कदाचित मराठीतील पहिलीच व म्हणून मैलाचा दगड ठरावी.

गेमस्केप हीच याहि कवितेची ‘लँडस्केप’ आहे. गेम निवेदकही (नॅरेटर) बरोबर आहे.

‘नायक अर्थातच जरी आपण- तुम्ही आम्ही असलो तरी तो किंवा ती जुन्या शूट आऊट गेम्स मधील कमांडो किंवा अगदी अलीकडच्या ‘स्ट्रे’ गेम मधील मांजराचा अवतार वाटला तर नवल वाटू नये’ असे संजीव खांडेकर कविता वाचनानंतर म्हणाले होते.  – संपादक

 

चंद्र च्युइंगम

त्या विटांपाठले खडक असतील भिजून

गेले झिजून,

जागोजाग त्यांच्या उघड्या फटीतून

गोगलगायीची एकेक

चंद्रकोर

गेली असेल गळून.

असेल तिने गिळला

आख्खा चुकार चकोर,

किंवा गेला बाजार,

चतकोर –

या न थांबणार्‍या पावसात

नाचून दमून गेलेला मोर?

किंवा शेंदव जमून दमट झालेल्या

गाण्याचा तलम पडदा,

आणि बेडकाचा जबडा; –

खर्जातून उघडा…

अगं, तुला दिसला

तो फक्त

सांगाडा.

रबरी

वितळलेल्या कंडोमाचा

उरलेला सांडग्याचा पापुद्रा;

म्युझियमच्या मखमलीत

इथरच्या द्रावणात प्रागैतिहासिक वासाचा

चिपचिपीत चोथा

(त्याच्याच) डोळ्यांच्या खोबणीतून येणार्‍या

डिझेलच्या वासासारखा –

मातीचाच पण खवट खनिजी,

मंद्र सर्वत्र.

सुषिर स्वयंभू चंद्र च्युइंगम.

हवाहवासा

चाफा किंवा मोगरा.

जातिवंत तंबोरा

श्वासांच्या मधोमध

वाळून कोळं झालेला कालच्या किरमिजी

पक्षांचा थवा. गंभीर आणि घोगरा.

मुरलेल्या माशासारखा.

लोणची वासाचा

खमंग खारट तुकडा.

पाठोपाठ तळाशी पोहणारा, थेंबाएवढ्या सूर्याचा

सप्तरंगी पिसारा,

तसा हा पाण्यावरील तेलाचा वाटोळा

तवंग;

अतरंगी मलंग.

त्यात टायरचा रुतलेला, दणकट,

दरवेशी

घोड्याच्या टापेचा पोलादी नाल.

अश्मीभूत अमोनॉईड,

जसा.

तसा.

खांबातून पाताळाचे आकाश तोलणार्‍या,

दगडी जांघेतून

नरसिंह प्रगटावा

पण फॉसिलाईज्ड असावा,

जसा ठसा.

तसा.

तिथून पुढे मग

बगळ्यांच्या बग्गीला

माळेत गुंतवून उडवावे,

तशी ओलसर जमिनीवरून

दमट बुंध्यावर उंच

चढत गेलेली केवढी मोठी

बुरशीच्या बशांची रांग.

त्यावर एक नक्षीदार बोनचायना कप

ठेवून

घसा खरखरीत शेकवत गिळलेला

चहाचा तेजस्वी घोट

आठवेल तुला

आपसूकच मग

बुळबुळीत आवंढ्याचे

चमचमीत चघळले जाणारे हाड –

पुरवते ते तेवढेच जिभेचे लाड,

तशात यावा ओंडक्यासारखा

मध्ये आडवा

एक इवलासा पक्षी,

जंगलच त्याला साक्षी –

तसा हा अजस्र झाडाचा

उरलासुरला रुंद बुंधा;

किंवा सोंडेच्या सांगाड्यावर बसून गाणारी

लोखंडी नक्षी,

कसली म्हणशील तर उरलेल्या बुंध्याला

तहान लाडू भूक लाडू घेऊन आलेल्या

त्याच्या आप्तस्वकीयांच्या मुळांच्या माळेची केशिका जाळी.

प्रस्थर ओंडक्याचा आत ओढून बाहेर पेâकलेल्या जपाच्या माळेचा

पुढचा मणी; किंवा नुसताच पडलेला

धड नसलेला कुणी प्राणी; –

तो जरा बघ,

मंद्र सर्वत्र.

सुषिर स्वयंभू चंद्र च्युर्इंगम.

त्यांच्या दुर्बिणी आधीच

तपासत आहेत

जागोजागची

मुळांच्या खाली खोल

रुतलेली

मातीच्या गोळ्यांची वारुळे.

वळवळणारी गांडुळे

मुंगी किंवा मेलेली मधमाशी

हिरा मोती आणि सोन्याची राशी

ती बघ.

बघ, इकडे तिकडे अस्ताव्यस्त पडलेली

नकाशांची भेंडोळी,

किंवा जळमटांच्या समाधीवर

स्तब्ध दगडी उभा कोळी,

बंदुकीतून सुटलेली पहिली गोळी,

किंवा मुंगीचे पोट फाडून वळवळणार्‍या

हिरवट माशीची गोल पांढरी अळी.

एक्सबॉक्स ३६०ची जॉयस्टिक नळी,

आणि करवतीने इलेक्ट्रिक

भुईसपाट झाडांवर धारधार लांबचलांब

खुळखुळणारी विळी.

तीही बघ,

करवतीच्या काट्यांवर जमतात जे जे

तेच पसरतात रानोमाळ.

जस्मोनेट.

हिरवट वासांचे –

बुलबुल पोपट मैना कवडे पतंग

जखमांचे सत्संग,

दमट साकळलेले सगळे रंग

ते उचल, कुपीत भर;

नोंदवहीत गुपित धर.

पुस्तकाच्या पानात दाबून पुâले किंवा पाने

जाळीदार पडद्याचा कशिदा आणि

पुराव्यांचा लगदा मळून कागद बनव –

म्युझियमच्या डू इट युवरसेल्फ दालनात

ओरिगामी, नोंदवही, स्केचबुक नवेकोरे,

स्वच्छ धुऊन आणि वगैरे,

चित्र आणि कविता.

धरित्री कशी माता पहा तिची समग्र गाथा.

मंद्र सर्वत्र.

सुषिर स्वयंभू चंद्र च्युर्इंगम.

जंगलतोडीचा जमा-खर्च लिहायला

मग मिळेल तेवढा करवतीचा वास उचल.

वुंâद हिवाळ्यातील सर्द कागदावर टिपून घे.

सगळी टिपे पानापानातून गळणारी

संभाव्य भाषेची गुप्त अंगे आणि अक्षरे,

दफनभूमीत उकरलेल्या श्वासांची भूयारे.

संकेतांची कोडी किंवा लांबलचक

होडी

तीही वल्हव थोडी थोडी.

नकाशातच नकाशापुरतेच हात पाय मार

नकाशातील स्पष्ट नद्या

सुप्त नद्या, गुप्त नद्या,

अस्पष्ट आणि अद््भुत नद्या,

कल्पित किंवा अकल्पित नद्या

त्यांचे वाहणारे, वाहिलेले, सुकलेले, सुकवलेले,

वळलेले, वळवलेले, बांध घातलेले,

प्रवाह, प्रपात, धबधबे आणि

गाळाने भरलेली पात्रे

बघ;

चुरगळ नकाशे

नद्यांना तोड मोड जोड

बाटलीत भर

बादलीत भर

सडे घाल

तलाव ताल

कुस्कर छान नदीचे गाल.

पीळ कान मोड मान, नदीला

दाखवत सूर्याची पिल्ले

सेल्फी काढ

गाळासकट नदी पुâगव

नदीचा पुâगा उंच उडव

खाली राहिलेल्या वाळवंटात

शोध हाडे पूर्वजांची,

वळवळणार्‍या सुरवंटांची;

इच्छा खाऊन घोंगावणार्‍या

घुंगुरट्यांची,

मॅगोटमधील इच्छारूपी माशीच्या मादीची;

मरून पडलेल्या नदीच्या पुâटलेल्या पुâग्याची

एका जीर्ण विस्तीर्ण पापुद्र्याची.

बघ

बघ, एवढ्या सार्‍या पसार्‍यातून नेमका झरा कोठून वाहतो?

आणि सरळ मुद्द्यावरच यायचं झालं तर –

तेलाचा वास कोणत्या झाडांच्या अबलख पुâलांना येतो?

याची गणिते मांडणारे, घरंगळलेले हे हजारो दगड बघ.

दगड धोटे पत्तर पोटे धोंडे

बाण शाळीग्राम सुपार्‍या आणि दगडी लिंगे

शीतळेच्या शिळा,

केशवाचा माथी टिळा;

ईडा पिंगळा मध्ये सुषम्ना

तसे

मांडलेले तर काही विस्कटलेले

कापलेले ताशीव तर काही कोरलेले ठाशीव

सांबरशिंगी कुळकुळीत संगमरवरी स्फटिकी.

पखरण तारांगणाचे, अगणित

जणू पुâटले झुंबर, मडले उंबर

तसे

सांडलेले आकाशातील दगड

किंवा म्हणा वीरगळ. (विराम)

तेलाच्या खाणीसाठी

सोन्याच्या शोधासाठी

चांदी रूपे पितळ तांबे

लोखंडाच्या मेरूसाठी

मिठाला जागून रेशमाच्या गाठीसाठी

सुतावरून स्वर्गासाठी मसाल्याच्या गोणीसाठी

हा दगडांचा दगडी ओघळ,

अविरत टपटप पानगळ –

तशी ही वीरगळ

जिथे विरघळते आणि विरून जाते

तिथे बघ;

बघ

तिथे तिथे तुंबलेले दगडांचे

एकेक तळे बघ

जीर्ण दगडी खुडूक डोळ्यांत

खडकाखडकांवर वाढणारे शेवाळे

तेही सगळे बघ.

शेवाळे शेवाळे शेवाळे

हिरवे निळे काळे शेवाळे

सावळे निसरडे पिवळे पांढुरके

पंचकल्याणी घट्ट शेवाळे

शेवाळ्यात गुंडाळून आणलेला

हा मासा बघ.

ताजा आणि फडफडीत.

सताड उघडे पण कुठेच न पाहणारे त्याचे डोळे बघ.

मंद श्वास

मधेच हलणारी शेपटी; पुâगलेले थरथरणारे कल्ले, बघ.

तडफड नव्हे नुसतीच फडफड.

फडफडीत मासा, शेवाळी मफलरमध्ये गुंडाळलेला मासा.

एकमेव.

म्हणून किमती.

या प्रजातीचा शेवटचा नर.

आता उरेल ते या सिरिंजमधील त्याचे रेत.

बाकी सारे प्रेत.

म्हणून अनडेड;

मरावे परी कीर्तिरूपी उरावे

असे, तर तसे.

तसा त्याचा निवलेला पण शिजवल्याने वटारलेला

सताड वाटोळा उघडा डोळा,

डेड कि अनडेड?

काहीही असो, तर तो काय पाहात असेल

ते सगळे तू बघ.

त्याचा कल्ला दाबून बघ. बाहेर पडणारे चिकट पांढरे पाणी पाहून बघ.

फडफडीत बघ.

फडफडीत जगण्याची जेवढी म्हणून

लांब उडी असेल

उंच उडी असेल

तेवढी सगळी लांब, रुंद, उंच, उडी

मारून बघ.

पाण्याबाहेर काढताना त्या शेवटच्या माशाने

जेवढी म्हणून मारली विंâकाळी तेवढी सगळी

जिवाच्या आकांताने मारून त्याला जे जे दिसले

ते ते बघ.

म्हणजे तुला कळेल समुद्रातील विहिरीचे रहस्य,

तेथील मर्मेडांचे विच्छेदन करून गोठवलेले स्मितहास्य,

अनडेड, म्हणून वॉन्टेड. प्रेâशली प्रिâझड.

मंद्र सर्वत्र.

सुषिर स्वयंभू चंद्र च्युर्इंगम.

आता इथे एक लांबलचक पॉझ घे.

दीर्घ श्वास, मग लांब उच्छवस…

माइंडपूâल! वन्डरपूâल

तर त्या मरमेडच्या प्रेâशली प्रिâझड हसण्याची प्रेâम त्या तिथे लावली आहे

जिथे सगळी गर्दी आहे ना तिथेच,

म्युझियमच्या सर्वात मोठ्या दालनात.

दिसली तुला?

टाचा उंच करून बघ,

मग दिसेल तुला.

प्रेâमच्या बाहेर एक प्रेâम,

तिला काटेरी तारांचे वुंâपण

त्यातून खेळणारा विजेचा प्रवाह,

त्या बाहेर चित्रविचित्र मुखवटे घातलेल्या

सुरक्षा रक्षकांची फौज

बाऊन्सर्स.

आणि त्या बाहेर ती तोबा गर्दी.

ती बघ,

काढ, अगदी खुशाल काढ एखादी सेल्फी;

इन्स्टासाठी.

गोठवलेल्या स्मितहास्याच्या प्रेâमसमोर

उभी राहून

तसेच हासून

खिदळून

हात उंचावून

किंवा कुणाच्या गळ्यात अडकवून;

काढून घे सेल्फी.

कारण क्वचित एखाद्या वेळी,

आणि खरंतर अलीकडे वारंवार

वाढणार्‍या गर्दीच्या उष्ण श्वासामुळे असेल,

कुणी म्हणतात उडणार्‍या कॅमेर्‍याच्या फ्लॅशमुळे असेल,

बाहेर अर्धवट खाऊन पेâकलेल्या बर्गर किंवा कोकाकोलाच्या रिकाम्या बाटलीमुळे असेल

वा मिनरल वॉटरच्या बुचामुळे, चॉकलेटच्या रॅपर किंवा चुरगळलेल्या टिश्यू पेपरच्या ढिगांमुळे असेल,

त्या कचर्‍याच्या कुंडीत मरून पडलेल्या कोंबडीच्या शापामुळे असेल;

तर जे काही असेल ते असो,

पण मग

या खोलीचे तपमान वाढते

त्या मत्स्यकन्येचे गोठवलेले स्मित वितळते.

हिमनदी वितळून सरकावी तसे प्रेâममधून सरकते

खाली ओघळते

कार्पेटवर पसरते

स्मित पुसून ओघळलेला चेहरा भेसूर दिसू लागतो

दालीच्या चित्रासारखा.

रक्षक धावतात, गेट्स बंद करतात. अ‍ॅम्ब्युलन्सचे सायरन वाजतात,

स्पन्जवर गोळा करत ओघळ टिपायला

घेतात.

शास्त्रज्ञ बोलावले जातात, बिगूल वाजवत मिळेल तेवढे उचलून

प्रेâममध्ये ठोसावे लागतात,

प्रिâझरचे पंखे चालवून गोठवावे लागतात.

देशोदेशीचे तज्ज्ञ तापमानाची गणिते मांडून आकडेमोडीवर सट्टा खेळतात

वितळलेल्या थेंबांची विंâमत राईट ऑफ करायला

नवे ताळेबंद जाहीर होतात.

कवी कलावंतांना इन्स्टॉलेशनची

महागडी टेंडरे मिळतात,

मेकपमन पूर्वीसारखे कारंजे स्मिताचे

चेहर्‍यावरच खणून काढत बर्फाळ रफू करतात.

ते ठिगळ, –

अघळ पघळ उधळमाधळ,

ते पण बघ.

थोडे चघळ.

पुन्हा पॉझ घे,

इथे इथे बस गं चिऊताई

बाळाचा खाऊ खाई

खाऊ खा पाणी पी बाळाच्या डोक्यावरून भुर्रकन उडून जा

या भव्य म्युझियमच्या परसात उभे असलेले

ते दिव्य झाड पाहिलेस?

तो मुला-मुलींचा घोळका त्याचेच तर स्केच करतोय.

माझ्यासारखाच दिसणारा, त्या मुलांशी गप्पा मारणारा तोही

माझ्यासारखाच इथला गाईड आहे;

तो काय सांगतोय ते लक्ष देऊन ऐक.

तो सांगतोय की

हे झाड जवळपास पाच हजार वर्षांपूर्वीचे आहे.

कोणी म्हणतात दहा किंवा पंधरा हजार वर्षांपूर्वीचे आहे.

वॅâलिफोर्नियातून इथे आणले.

सिलिकॉन व्हॅलीने सप्रेम भेट दिले.

वणव्याच्या धुराच्या सात काळ्या वर्तुळांसकट हिशोब केला तर

पाच हजार सात वर्षे किंवा

दहा किंवा पंधरा हजार सात वर्षे,

कुणी म्हणतात आप्रिâकेत होते

चिन्यांनी ते उकरले

खाली तांब्याची खाण होती

आणि एका प्रेंâच वसाहतीच्या विष्ठेच्या अलीकडच्या खुणा होत्या

त्या सगळ्यासकट भाडेतत्त्वावर त्यांनी

आमच्या म्युझियमला दिले.

एका पुरातत्त्ववेत्त्याच्या अभ्यासानुसार

ते इराण किंवा इराकमधले असावे, किमान सीरिया लिबिया अफगाणिस्तान किंवा पाकिस्तानातील

असावे.

आखाती युद्धात पेट्रिअट क्षेपणास्त्राचा मारा त्याच्या शेजारीच झाला,

एक फांदी मोडली, खाली पडली,

म्हणून अमेरिकी अध्यक्षांची मुलगी रडली,

अध्यक्षांनी मग फांदी उचलली,

झाड उखडले, म्युझियमच्या दारात ठेवले,

शांततेचे नोबेलदेखील फांदीलाच वाहून टाकले.

कुणी म्हणतात कलकत्त्याचा पिंपळ असावा,

जपानचा गिन्को किंवा तुर्की खजूर असावा;

आप्रिâकन चिंचेवरचा समाधिस्थ गोरख असावा.

योगेशवर श्रीकृष्णाच्या ऊध्र्वमूल अश्वत्ताचा

ढळढळीत अंश असावा,

एका बलाढ्य औषध वंâपनीच्या संशोधनाचा भाग असावा

किंवा डिस्नेच्या सेटवरील प्रतिसृष्टीचा भास असावा;

तसा हा वटवृक्ष

म्युझियमच्या परसात अवाढव्य उभा आहे

पानांशिवाय

खाटकाने मारलेल्या जनावरांच्या शिंगांचा ढीग लावावा

तसा, निष्पर्ण आणि निर्मोही

तो मेलेला नसावा

म्हणून जिवंत असावा.

अनडेड.

ळहर््ी्

म्युझियममधील अनेक वस्तूंपैकी एक.

त्याचे मूळ म्हणतात चार हजार वर्षे खोल आहे

हुंबाबाच्या पोटातून गिल्गमेशच्या लगद्यातून

रामायणाच्या पोथ्यांतून

महाभारताच्या गोत्यातून किंवा अगदी थेट

गुरगुरणार्‍या निअँडरथलच्या गुहेतून पसरलेले

आणि अंतराळातील यक्षिणीच्या अळींबीच्या छत्रीवरून

अलगद उतरलेले

क्षर आणि अक्षर यांच्या पलीकडे घसरलेले.

असीम इच्छांचे प्रच्छन्न मूळ,

ते तू बघ.

म्युझियमची दारे बंद होण्यापूर्वी बघ.

त्याच्या बुंध्यातील

काळपट मातकट वर्तुळे, किंवा

इतिहासाच्या आतड्यांचे अवजड वेटोळे.

किडामुंगीअळ्यांच्या पूर्वजांच्या अवशेषांची

अनाहत लक्तरे, वुंâभारणीची घरे आणि पांढुरकी कोषांची अगणित टरफले,

फडफडणारी फटीचटीतून शेकडो प्रस्थर शहरे;

वळवळणारी सत्तावीस सोळा सहस्र नक्षत्रे

ती तू बघ.

चिमूट चिमूट बुंध्यातून दमट गळणारा भुसा

निमूटपणे गोळा करणारी गाडीघंटा बघ,

काळ्या कृष्ण विवरात खोल गेलेला

अश्वत्ताचा आक्रसलेला पाय बघ,

पायथ्याशीच पुरलेला सोन्याचा हंडा बघ,

हंड्याच्या तोंडाशी मेसोपोटीयन नाग बघ,

झाडाच्या शेंड्यावर फिकट इराणी गरुड बघ,

अस्थिपंजर बुद्धाचा जमीन शिवणारा हात बघ,

अस्ताव्यस्त फांद्यांत भरकटलेले जहाज बघ,

शिडांमध्ये पांढरा मरगळलेला वारा बघ,

बुंध्यामध्ये सोंड घालून माज गळलेला हत्ती बघ;

म्युझियम बंद होण्यापूर्वी बघ.

दहा हजार वर्षांच्या झाडावर चढून

बिसलेरीचे पाणी पिऊन

प्लास्टिक बॉटल पायात धरून

दात विचकणारी माकडीण किंवा

ते म्हणतात तशी शालभंजिका तर बघच बघ.

मंद्र सर्वत्र. सुषिर स्वयंभू चंद्र च्युर्इंगम. मंद्र सर्वत्र. सुषिर स्वयंभू चंद्र च्युर्इंगम.

मंद्र सर्वत्र. सुषिर स्वयंभू चंद्र च्युर्इंगम. मंद्र सर्वत्र. सुषिर स्वयंभू चंद्र च्युर्इंगम.

मंद्र सर्वत्र. सुषिर स्वयंभू चंद्र च्युर्इंगम. मंद्र सर्वत्र. सुषिर स्वयंभू चंद्र च्युर्इंगम.

मंद्र सर्वत्र. सुषिर स्वयंभू चंद्र च्युर्इंगम.

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Sachin Ketkar <![CDATA[गप्पागोष्टी – सचिन केतकर]]> http://foundation.virtuereal.com/?p=5162 2022-10-18T09:07:24Z 2022-10-18T08:43:39Z

१. कविता ही कुठले ना कुठलेतरी सत्य सांगत असते व एक सहृदय वाचक हे सत्य जेव्हा आत्मसात करतो तेव्हा त्याला किंवा तिला एक प्रकारचा आनंद होतो, एक प्रकारची मुक्ती मिळते. आजच्या सत्योत्तर (post truth) विंâवा डिसइन्फॉरमेशन/मिसइन्फॉरमेशन अवकाशाच्या पार्श्वभूमीवर तुम्ही याकडे कसे पाहता?

२. उत्कृष्ट साहित्य हे एकदा किंवा अनेकदा वाचून आत्मसात करायला एक प्रकारचा अभ्यास आणि संयम लागतो असे मानले जाते. अशा प्रकारचा अभ्यास आणि संयम दुर्मीळ आहे व प्रयत्नपूर्वक घडवावा लागतो. आजच्या डिजिटल युगात मात्र तात्काळ समाधान हीच प्राथमिकता झाली आहे. सहज उपलब्ध समाजमाध्यमांमुळे खूप लोक कविता लिहू लागले आहेत असे आशादायक चित्र दिसते. पण बहुतांशी अशा कविता किंवा लेखन हे प्रासादिक, चटपटीत असते. कवितादेखील कवितावजा भाष्य किंवा कवितावजा अनुभवकथन करताना दिसते. पण अशा कविता लोकांना अपीलही होत आहेत. तर, अशा समकालीन वास्तवात, तुम्ही एकूण काव्य व्यवहाराकडे कसे पाहता? खूप मोठ्या प्रमाणात जे रंजनवादी साहित्य (कथा, कविता, कादंब‍र्‍या, नाटके इ.) निर्माण होते आणि लोकप्रियही.

सचिन चंद्रकांत केतकर

नक्कीच कविता कोणत्यातरी एक प्रकारचा सत्य सांगत असते. आज ज्याला सत्योत्तर (Post Truth) समाज आपण म्हणतो हा नव्या प्रसारमाध्यमातून (New Media) निर्माण झाला आहे, ज्यात सपशेल खोटं आणि असत्य एका मोठ्या समूहापर्यंत क्षणार्धात पाठवता येतं आणि बहुतांशी मंडळी ह्यालाच सत्य म्हणून स्वीकारतात. आज तर भारतीयांचा मेंदूच नव्या आणि जुन्या प्रसारमाध्यमाच्या उपयोगाने Hack झालेला दिसतो. अशा नव्या सत्योत्तर समाजात कवितेचं काहीच स्थान मला वाटत नाही.

कला मात्र करमणुकीसाठी नाहीतर ढोबळ प्रचारासाठी वापरल्या जात आहेत. मूठभर लोक गंभीर साहित्य किंवा कलांकडे वळताना दिसतात. अर्थातच ही प्रक्रिया सुरू होऊन एक दोन शतकं झालीत असं वाटतं.

कलांचा मृत्यू हा विषय हेगेल (Hegel)नी खूप पूर्वीच मांडला होता. त्याचं म्हणणं असं की वैज्ञानिक बुद्धिप्रामाण्यवाद जो भांडवलशाहीबरोबर जन्माला आला आहे तोच मानव चेतनेचा सर्वोत्तम आविष्कार आहे आणि त्याच्यामुळे कला, जी माणसाची जुनी अभिव्यक्ती आहे ती मागेच पडत जाणार.

त्याला प्रतिउत्तर देण्याच्या प्रयत्नात विसाव्या शतकाच्या मध्यभागात मार्टिन हायडेगर ज्यांनी `सत्य’ आणि `कला’ ह्यांच्यातल्या पारंपरिक विचारव्यूहाला मूठमाती देऊन, एका नव्या प्रकारचा paradigm मांडण्याचा प्रयत्न केला व त्यातून कला आणि सत्यविषयी एक नवीन मांडणी केली. त्याच्या  `The Origin of the Work of Art’  ह्या निबंधातला कला म्हणजे कोणी एक वस्तू नसून एक प्रकारचं `unconcealing’  – एका प्रकारच्या असतेपण/ नसतेपण उघडकीस

आणण्याची/ प्रगट करण्याची रीत म्हणून पाहिला पाहिजे असा आग्रह धरला. हे प्रगटीकरण एकाद व्यक्तीचं नसून मानवी असण्याचा विंâवा असतेपणाचंच Being) प्रगटीकरण (unconcealing) आहे. त्याच्या मते आजचे सौंदर्यशास्त्र असतेपणाच्या आधिभौतिक किंवा Metaphysical धारणांवर आधारित आहे. आजच्या सौंदर्यशास्त्रात कला म्हणजे एक वस्तू आहे आणि म्हणून तिची विक्री किंवा तिला उपभोगाची वस्तू मात्र आहे अशी समज रूढ आहे.

`The Questions concerning Technology’ ह्या निबंधात तो म्हणतो की, `टेक्नॉलॉजिकल’ आणि ‘टेक्नॉलॉजी’ ह्या भिन्न गोष्टी आहेत. टेक्नॉलॉजिकल म्हणजे कोणालाही -मग स्वत:ला असो किंवा अन्य काही– अवजारं समजण्याची वृत्ती किंवा एक असतेपणाची रीत (a way of being) आहे ज्यात सर्व प्रकृती-निसर्ग आपल्या उपयोगासाठी, वापरण्यासाठीच निर्माण झाला आहे अशी धारणा रूढ झालेली दिसते. म्हणूनच आपण स्वत:ला आणि दुसर्‍यानासुद्धा `resource’ वापरण्याची वस्तू म्हणून पाहातो. कलेविषयीची मूलभूत धारणाच मेटॅफिसिकल आणि टेक्नॉलॉजिकल आहे आणि म्हणूनच कला हे बाजारपेठच्या डायनॅमिक्समध्ये अडकते. आज कलेला मूल्य (value) नसून केवळ `किंमत’ ((price) उरलाय असं म्हणता येईल. रंजनवादी साहित्याचे कारखाने मोठ्या प्रमाणात चालतात ह्याचे हेच कारण. साहित्याचे किंवा कलेचे काम निव्वळ करमणूक आणि रंजन करून प्रतिष्ठा आणि पैसे मिळवणे हेच उरले आहे. उच्च कला आणि लोकप्रिय कला ह्यांच्यातल्या उतरंडीला आणि द्वैताला उत्तर-आधुनिकतावादी कलावंतांनी आवाहन दिलं खरं पण आज लोकप्रिय कला ही एकमात्र कला म्हणून उरलीये काय, असा प्रश्न पडतो.

३. समकालीन असणे म्हणजे आपणांस काय अभिप्रेत आहे?

४. साहित्य ज्या भूमीतून जन्म घेते, ती भूमी अथवा प्रदेश साहित्याचे सांस्कृतिक किंवा राष्ट्रीय संदर्भभान ठरवत नाही असे म्हटले जाते. काय वाटते आपल्याला?

५. तुमच्या कवितेचा उत्तरकालीन कवींवर जो गडद प्रभाव आढळतो त्याविषयी तुम्हाला काय वाटते. या महानगरी/ जागतिकीकरणोत्तरी कवितेचा प्रभाव केवळ कवितेवरच नाही तर horizontally समकालीन चित्रपट, नाटक, लघुपट, कथा-कादंब‍र्‍या इत्यादींवरही पडलेला आढळतो याविषयी तुम्हाला काय वाटते? 

६. कविता लिहिण्यासाठी अभ्यास गरजेचा असतो का? कवीने कविता लिहिण्याआधी कशाकशाचा अभ्यास करणे गरजेचे असते?

सचिन चंद्रकांत केतकर

समकालीन समाजात विंâवा डिजिटल भांडवलशाहीच्या युगात, finance capitalism, cryptocurrency आणि NFT च्या युगात, ज्याला Andreas Hepp Deep Mediatizatized समाज म्हणतो, त्यात गंभीर कला आणि कवितेचे भविष्य काय ह्याचा गंभीरपणे पुनर्विचार करण्याची गरज आहे. हा पुनर्विचार करण्याचा प्रयत्न जो साहित्यिक करतो तो समकालीन साहित्यिक असं समजत येईल. आपण जेव्हा सत्योत्तर समाज म्हणतो तेव्हा आपण सत्याचा कोणत्या सुवर्ण युगाची कल्पना करत नसतो पण ह्या deep mediatized जगातल्या डिजिटली transformed public sphere विषयी बोलत असतो.

Andreas Hepp म्हणतो की, ‘an advanced stage of the process in which all elements of our social world are intricately related to digital media and underlying
infrastructures’ आपल्या वास्तविकतेलाच बदलते. ह्या नव्या mediated construction of
reality भान समकालीन जाणिवेचा गाभा आहे असं मला वाटतं आणि ज्या साहित्यात ही जाणीव व्यक्त होते त्या साहित्याला समकालीन म्हणता येईल.

मार्शल मॅकलुहानने बर्‍याच दशकांपूर्वीच आपल्या जगाचं टीव्ही आणि रेडिओसारख्या प्रसारमाध्यमांमुळे `वैश्विक खेडं’ निर्माण झाले आहे असं जाहीर करून ठेवलंय. माध्यमांमुळे माणसाच्या इंद्रियांनुभूतीचे प्रमाण (sense ratio) सतत बदलत असतो असं मॅकलुहान म्हणतो. ज्या माध्यमांमध्ये इंद्रियानुभूती कमी प्रमाणात मिळते व प्रेक्षक विंâवा वाचकांना अधिक सर्जनशीलपणे/ कल्पकपणे सहभाग करावा लागतो अशा (Low definition) माध्यमांना मॅकलुहान `थंड’ किंवा Cool माध्यम म्हणतो (उदाहरणार्थ गंभीर साहित्य व तत्वज्ञान) आणि ज्या माध्यमात इंद्रियांनुभूती मोठ्या प्रमाणात (high definition) मिळते आणि प्रेक्षक/श्रोत्यांच्या सहभाग कमी असतो त्यांना `Hot’ किंवा उष्ण मीडिया म्हणतो (उदाहरणार्थ OTT, इन्स्टाग्राम आणि टिकटॉक). (कॉम्प्युटर games ह्या दोन्ही प्रकारचे माध्यम वाटते!) आज डिजिटल भांडवलशाही व deep mediatized जगात Hot माध्यमाचं प्रमाण खूप वाढल्यामुळे आपण एक नव्या निरक्षरतेकडे जातोय असं वाटतं. गंभीर साहित्याचे अवकाश खूप छोटं झाल्यासारखं वाटतं. अर्थातच अतिशय क्षीण झालेला `attention span’ ह्याच ई-विश्वाचा भाग आहे.

ह्या तांत्रिक क्रांतीबरोबरच वैश्विक व स्थानिक स्थरावर मोठ्या प्रमाणात वैचारिक व मूल्यनिष्ठ परिवर्तन मागच्या तीन दशकांत घडून आले आहेत. सोव्हिएत गणराज्य विलीन होणं, चीन साम्यवादाच्या नावाखाली सवाई भांडलवलशाही महासत्ता म्हणून समोर येणं, नवं उदारमतवादी विचारधारेचं जागतिकीकरण होणं वगैरे बरोबर उपभोगतावादी संस्कृतीचा जागतिकीकरण होणं वगैरे. भारतात ह्याचबरोबर जात वर्ग लिंग वगैरेचं राजकारणसुद्धा मोठ्या प्रमाणात बदललेलं दिसतं.

एकोणीसशे साठ नंतर पुढे आलेल्या अस्मितावादी चळवळी अल्पसंख्याकांच्या होत्या -दलित, आदिवासी, स्त्रिया वगैरेंच्या होत्या. एकोणीसशे नव्वदनंतर बहुसंख्याकांनी अस्मितावादी राजकारण आणि आंदोलनं सुरू केली -अयोध्या राम मंदिर आंदोलन व `straight pride’ वगैरे. औद्योगिक भांडवलशाही व्यवस्था financial capitalism आणि service sector भांडवलशाहीमुळे बाजूला पडत गेली आणि मजूर चळवळीचा पाया असलेला डावा माक्र्सवादी विचारही बाजूला पडला. कट्टर बहुसंख्याक प्रभुत्ववाद/ धुरीणत्व (majoritarian supremacist) प्रचंड प्रमाणात वाढला.

आजच geopolitics शीत युद्धोत्तर आहे. Ukraine वर रशियाचं आक्रमण, रशिया, चीन व पाकिस्तानसारख्या देशांची जवळीक वगैरे नवे संघर्ष कोणत्या तरी ideology (डाव्या उजव्या वगैरे) वर आधारित नसून निव्वळ `will to power’वर आधारित आहे. ह्या नव्या विश्वात गंभीर कवितेला काय स्थान आहे? शी जिनपिंग, ट्रम्प, पुतिन वगैरे मंडळी कोणत्या कविता वाचतात? W H Auden म्हणतो त्याप्रमाणे `Poetry makes nothing happen’.

. समकालीन असणे म्हणजे आपणांस काय अभिप्रेत आहे.

साहित्य ज्या भूमीतून जन्मते त्या भूमीला `भाषा’ म्हणतात आणि भाषेला जसा भौगोलिक आणि प्रादेशिक संदर्भ असतो तसा ऐतिहासिक संदर्भसुद्धा असतो. `मराठी’ म्हणून ओळखली जाणारी भाषा `इंडो युरोपियन’ कुळातली भाषा आहे हे ज्ञात आहेच. म्हणजे ऐतिहासिक संदर्भात पहिलं तर मराठी मात्र प्रादेशिक भाषा नसून `इंडो युरोपिअन’ भाषांच्या भूगोलाशी आणि इतिहासाशी जुळलेली आहेच. त्याचबरोबर जागतिकीकरणामुळे व तंत्रज्ञानामुळे जागतिक आणि स्थानिक ह्या दोन्ही स्तरांवरचा नातं बदल आहे. वर सांगितलेल्या जागतिक व स्थानिक परिवर्तनाचा सखोल प्रभाव सर्वच भाषांवर अपरिहार्य आहे. ह्या नव्या भाषेतून आलेले साहित्य आपलं समकालीन साहित्य समजू शकतो

तुझा प्रश्न आहे की, आपल्या कवितेचा प्रभाव इतर स्वरूप विंâवा लेखकांवर दिसतो का. तर तो दिसणे अपरिहार्य आहे, कारण आपण ज्या भाषिक व सांस्कृतिक वातावरणातून आलो तशाच वातावरणातून इतर लेखकही आलेच.

पण त्याचबरोबर हे सांगणंही गरजेचं आहे की वर्तमान आणि भूतकाळामधली discontinuity व ह्या discontinuity चे भान आधुनिकतेचे लक्षण आहे व making it new साठी अपरिहार्य आहेत. ह्या शिवाय little magazine असू शकत नाहीत आणि अवांत-गार्ड असू शकत नाही म्हणून वर्तमान समजायला भूतकाळ समजणे अपरिहार्य आहे. समकालीन विश्वाचं भान, वर्तमानाचा भान, ऐतिहासिक भान (ज्याला टी एस इलियट historical
sense म्हणतो जे पंचवीस वर्षांच्या नंतर ही कविता लिहिणे सुरू ठेवणार्‍या कोणत्याही गंभीर कवीसाठी गरजेचे आहे’), डोळसपणा व समज दुर्मीळ गोष्टी आहेत आणि Eliot म्हणतो त्याप्रमाणे कष्टाने प्राप्त करण्याची गोष्ट आहे.

त्यासाठी व्यासंग, वाचन, चिंतन आणि गांभीर्य अनिवार्य आहे जे कमीच दिसतं. हाच कवितेसाठीचा अभ्यास. आणि जर आपण कवितेला एक कला स्वरूप किंवा खेळ (sport/
game) समजत असू तर रियाझ आणि सरावाशिवाय पर्याय नाही.

मराठी माणूस वर्तमानापेक्षा किंवा भविष्यापेक्षा भूतकाळात जास्त रमतो, हा एका प्रकारचा पलायनवादच असावा. मराठी राजकारण जात आणि भूतकाळाभोवती फिरत असतं. म्हणून मराठी कवितेच्या भविष्याबद्दल एकूण संस्कृतीबद्दल विचारही आपल्या पिढीने करावा असं वाटतं.

Yurij Lotman म्हणतो तसं सांस्कृतिक बदलाच्या प्रक्रिया दोन प्रकारच्या असतात. एक प्रेडिक्टबली व संथपणे आणि explosively म्हणजे अचानकपणे अनप्रेडिक्टबली त्यात बदल होत जातात. लेखकांनी डोळसपणे ह्या दोन्ही प्रक्रियांवर लक्ष ठेवले पाहिजे. कृत्रिम बुद्धिमत्तेमुळं (artificial intelligence) आपलं भविष्य पूर्ण बदलेल. Yuval Noah Harari म्हणतो त्याप्रमाणे ज्या प्रकारे मोटारीचा शोध लागल्यामुळे घोडा व बैल निरुपयोगी होत गेला तसा माणूस AI मुळे बिनकामी होत जाऊ शकतो. तंत्रज्ञानमुळे posthuman व cyborg वास्तव जन्माला येऊ घातलाय. Metaverse सारख्या VRआणि AR तंत्रज्ञानामुळे माणसा-माणसांतली नाती पूर्णपणे बदलू शकतात. जगात कुठेही राहणारा मराठी माणूस META वरून कविता संमेलनात real time मध्ये सहभागी होऊ शकेल -अर्थातच असल्या गोष्टीना काही अर्थ उरला असला तर. Nanotechnology व genetics मुळे आपल्या शरीराशीच आपलं नातं पूर्णपैकी बदलेल. ह्या भविष्यात मराठी भाषा, संस्कृती आणि कवितेचे स्थान काय असेल? अर्थातच `भविष्य’ मूलभूतपणे `unpredictable’ असतं. कोणी अडीच वर्षांपूर्वी कल्पना केली होती की करोनासारखी महामारी जगाची वाट लावेल? ह्या महामारीने माणसाच्या `precarity”च दर्शन घडवलं. पुढे climate changeमुळे आणखीन कोणती गंडांतरं बघावी लागतील हा ही प्रश्न आहेच. एक कवी म्हणून, लेखक म्हणून हे विचार मला नेहमीच पडतात आणि कोणतं समाधानकारक उत्तरही आपल्याकडे नसतं.

७. जागतिक दर्जाचे साहित्य म्हणजे काय? काय आहेत त्याचे निकष? मराठीत कोणते लेखक/कवी जागतिक दर्जाचे आहेत?

सचिन चंद्रकांत केतकर: 

आज साहित्य वैश्विक बाजारपेठेचा भाग झाला आहे, ज्याला पास्कल केसनोवासारख्या विदुषी `World Republic of Letters’ म्हणते. ही व्यवस्था अर्थातच असमान आहे कारण पाश्चात्त्य साहित्य व संस्कृती तिच्या वेंâद्रात राहते व इतर साहित्य म्हणजे मराठी, मल्याळम वगैरे ह्या जागतिक व्यवस्थेच्या परिघावरच राहतात. जागतिक दर्जा म्हणजे काय बरेच वेळेला ही बाजारपेठ ठरवत असते. ही जागतिक बाजारपेठ स्थानिक/ राष्ट्रीय बाजारपेठेबरोबर नेहमीच आदानप्रदान करत असते. हे आदानप्रदान अनेक प्रकारचे असू शकते, उदाहरणार्थ भाषांतर, अन्य भाषेतल्या कृतींविषयी परिचयात्मक लेखन व समीक्षा, जागतिक पुरस्कार (नोबेल, बुकर, पुलित्झर वगैरे).

आज जर जागतिक दर्जा म्हणजे काय, हा प्रश्न मांडायचा असेल तर ह्या संदर्भातच मांडावा लागेल.

जागतिक साहित्य व्यवस्थेत सर्वात महत्त्वाची विसाव्या शतकातली नावं कोणती आहेत?

त्यांच्या लेखनावर नजर फिरवली तर जागतिक दर्जाविषयी थोडी कल्पना येऊ शकेल :

दोस्तोव्हस्की, टॉल्स्टॉय, गोगोल, चेखोवसारखे थोडे पूर्वीचे रशियन लेखक, काफ्का, जॉईस, हेमिंग्वे, इलियट, फॉकनर, टोनी मोरिसॉन, मांडलस्तम, आख्मॅटोवा स्टीवन्स, जीन्सबर्ग, टेड ह्यूज, सिल्विया प्लाथ, विस्लीव्ह झिमबोरसका, मिलोझ, वास्को पोपा, आल्बेर काम्यू, ज्या पॉल सात्र्र, बर्नार्ड शॉ, इब्सेन, ब्रेश्ट, बेकेट, इटलो वॅâल्विनो, मिलान कुंदेरा, त्याचबरोबर गब्रीएल गार्सिया मार्खेस, होरचे लुईस बोर्हेझ, ऑक्टव्हिओ पाझ, मारिओ वर्गास लॉससा व पाब्लो नेरुदा सारखे दक्षिण अमेरिकी लेखक आज जागतिक बाजारपेठेत महत्त्वाचे मानले जातात, कारण त्यांचे उत्तमोत्तम अनुवाद व त्यांना नोबेलसारखे जागतिक पुरस्कारही मिळाले आहेत.

ह्या व्यवस्थेचा स्वत:च राजकारण असलं तरी ह्या लेखकांनी मात्र स्वत:च्या भाषेतलाच नव्हे जगातल्या इतर भाषेतला साहित्याला – मराठीसकट – घडवलं आहे हे कबूल करावं लागेल.

ह्यांच्यामधली समान सूत्रं कोणती आहेत?

आशय आणि अभिव्यक्ती ह्या दोन्ही बाबींमध्ये कल्पकता व वेगळेपणा.

जवळजवळ सर्वांनीच फॉर्म आणि आधुनिक जीवनदृष्ट्या सखोल तात्त्विक असं वेगळं काही दिलं आहे व ग्राऊंड ब्रेविंâग काम केलं आहे.

देशीवादाची अवास्तविक कल्पना बारगळल्यामुळे मराठी साहित्य अतिशय संकुचित झालं होतं त्याचबरोबर मराठीत पारंपरिक, सरधोपट, फॉम्र्युलावादी लेखन करण्याच्या वृत्त्ती मोठ्या प्रमाणात असल्यामुळे वैश्विक दर्जाचं लेखन दुर्मीळ आहे.

त्याचबरोबर मोठ्या प्रमाणात मराठी वाचकसुद्धा भूतकाळग्रस्त, लेखांसारखाच जातीवादी, संकुचित दृष्टी असलेला व बुळबुळीत लेखन वाचणारा असल्यामुळे वैश्विक दर्जाचा मराठी लेखनाकडे पाठ फिरवताना दिसतो.

तरीही मराठीत अरुण कोलटकर, बाबुराव बागुल, नामदेव ढसाळ, सदानंद रेगे, दिलीप चित्रे, वसंत डहाके, व्यंकटेश माडगूळकर, कमल देसाई, पानवलकर, आनंद विनायक जातेगावकर, ह. मो. मराठे, महेश एलकुंचवार, सतीश आळेकर, विलास सारंग, चंद्रकांत खोत, वसंत गुर्जर, गंगाधर गाडगीळ, शाम मनोहर, मलिका अमर शेख, जी ए कुलकर्णी, कोसलाकार नेमाडे, किरण नगरकर, नंदा खरे वगैरेंनी विश्वसाहित्य पचवून स्वत:चं स्वतंत्र साहित्य मराठीत दिलं आहे. आजच्या पिढीत मकरंद साठे, अनिल दामले, संजीव खांडेकर, हेमंत दिवटे, कविता महाजन, निवि कुलकर्णी, सलील वाघ, मन्या जोशी, दिनकर मनवर, कथाकार प्रज्ञा दया पवार, मंगेश नारायणराव काळे ही परंपरा पुढे नेत आहेत हे पाहून आनंद होतो.

परंतु हे सगळं साहित्य वैश्विक प्लॅटफॉर्मवर जायला हवं इतकं जात नाही म्हणून  माझ्याकडून जितका प्रयत्न होऊ शकतो तितका करतो. असे अनेक प्रयत्न इतरांनीही केले पाहिजेत. त्याचबरोबर मराठीतही हे लेखन केंद्रस्थानी असावं असं वाटतं.

 ८. कविता निर्मितीची प्रकिया उलगडून दाखविता येते काय?

सचिन चंद्रकांत केतकर

माझ्यापुरती काही प्रमाणात माझी रचनाप्रक्रिया उलगडून दाखवण्याचा प्रयत्न मी करू शकतो.

माझ्या कवितेवर surrealism, imagism ke expressionism वगैरे Poetics चा प्रभाव आहे. मी कविता ठरवून logically वगैरे लिहू शकत नाही. एक प्रतिमा किंवा कल्पनेच्या साहचर्येचे association अनेक धागे अनेक दिशेने उलगडत जातात त्यांचा मागोवा मी कवितेतून घेतो. हे धागे नेणिवेतून सुरू होतात जाणिवेत शिरून पुन्हा नेणिवेत पसरतात. म्हणून माझी कविता कशी होईल किंवा त्यातून मला कोणती गोष्ट मांडायची आहे हे अगोदरपासून माहीत नसतं. आणि अगोदरपासून ठरवून लिहिलेल्या कवितेचा मला स्वत:ला कंटाळा येतो. म्हणून ठरावीक विषयांवर ठरावीक पद्धतीनं लिहिलेली कविता मला आवडत नाही. `चादर पाहून पसरले मी माझे पंचावन्न पाय’ ह्या ओळीचा अर्थ मला ठाऊक नसतो, पण माझ्या नेणिवेत त्याला काहीएक अर्थ असतो आणि कवितेतून मी त्याला शोधत असतो. अचेतन/ चेतन साहचार्याची माझी प्रक्रिया कुठे जाईल हे मलाच माहीत नसतं. म्हणून माझ्या कविता काही जणांना दुर्बोध वाटतात. पण कविता उमजणे म्हणजे नेमकं काय, हा प्रश्न राहतोच. कविता उमजणे म्हणजे गद्य -वर्तमानपत्र किंवा ठरावीक संभाषण- उमजणे असाच अर्थ असला तर कोणी कवितेच्या फंदातच का पडतोय, हा प्रश्न उरतो. ह्या दुर्बोध कवितेची परंपरा निदान सदानंद रेगे, मर्ढेकर, कोलटकर, चित्रे, परब, ओक, ढसाळ, डहाके व सारंग वगैरे कवींमध्ये सापडते (ह्या पिढीच्या कवितेला मराठी काव्य समीक्षेनी कितपत न्याय दिला? मला वाटतं फारच कमी प्रमाणात ह्या कवितेचं चांगलं विश्लेषण सापडतं. हे जर खरं आहे तर आपल्या पिढीच्या कवितेला आजची मराठी काव्य समीक्षा कितपत न्याय देऊ शकणार आहे?).

आपल्या जाणिवेवर नेणिवेवर व आपल्या भाषेवर अगोदर मी वर सांगितलेल्या सामाजिक-सांस्कृतिक व राजकीय प्रक्रियांचा प्रभाव असतोच. जर हायडेगरच `Language is the house of Being’ हे विधान पाहिलं किंवा  Jacques Lacanचं `Unconscious is structured like
language’ हे विधान पाहिलं तर आपल्या असतेपणाला व आपल्या नेणिवेला आपल्या भाषेपासून वेगळं करून पाहता येत नाही हे समजतं. म्हणून जेव्हा आपण आपली भाषा, समकालीन भाषा आज आपल्या पूर्वसूरींपेक्षा वेगळी आहे असं म्हणतो तेव्हा आपण आपलं असतेपण व नेणीव (फक्त जाणीवच नाही) सुद्धा आज बदलली आहे असं म्हणू शकतो.बहुतेक इथेच आपलं समकालीनत्व सापडेल असं वाटतं.

८. भारतात स्वातंत्र्योत्तर काळात आयआयटीसारख्या संस्थांपासून ते फिल्म इन्स्टिट्यूट, एनएसडी, साहित्य अकादमी आणि अनेक राष्ट्रीय आणि खासगी विद्यापीठे, संशोधन संस्था उभ्या राहिल्या पण कवितेकडे गांभीर्याने अभिव्यक्ती माध्यम म्हणून बघितले जाण्यासाठी अशी एकही मोठी संस्था उभी राहिली नाही. या सगळ्याविषयी आपल्याला काय वाटते?

 सचिन चंद्रकांत केतकर:

 कवितेकडे गांभीर्याने अभिव्यक्ती माध्यम म्हणून बघितले जाण्यासाठी अशी एकही मोठी संस्था उभी राहिली नाही हे खरं आहे. पण संस्था आली म्हणजे फंड्ज आले, खाती आली, राजकारण आलं. तरीही असा एखादा प्रयोग करून पाहण्यात काहीच हरकत नाही. कवितेसाठी अभ्यास, चर्चा, लेखन शिबीर, भाषांतर शिबीर, राष्ट्रीय आणि आंतरराष्ट्रीय दर्जाचे कवी व भाषांतरकार वगैरेंना आमंत्रित करून चर्चा, online व offline सामायिक, youtube channel वगैरे प्रवृत्ती करता येईल. तुझं कवितेचा घर ही संकल्पना किंवा पोएट्रीवाला foundation ची कल्पना ह्याच दिशेने जाते. नक्कीच असा प्रयोग करून पहिला हवा.

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shashikant hingonekar <![CDATA[शशिकांत हिंगोणेकरच्या कविता]]> http://foundation.virtuereal.com/?p=5157 2022-10-17T13:23:04Z 2022-10-17T13:21:25Z

१.

आरसे

पुन्हा पुन्हा पुसावे लागतात

स्वप्नांचे थर घट्ट झाले की,

सैरभैर होऊन जातं आयुष्य

स्वप्नांचे आरसे धूसर

होऊ नयेत म्हणून

लख्ख पुसलं पाहिजे कवितेलाही

२.

एका स्वप्नासाठी

किती हट्ट धरला होतास

पडझड खूप झाली

स्वप्न पांगत गेलं

झालं दिसेनासं

३.

अनाकलनीय पोकळी

आलीय आयुष्यात

अकस्मात

भरून येत नाही

कशानंही पोकळी

कुठल्या स्वप्नांची

प्रतीक्षा आहे

या पोकळीला

४.

गर्दी ओलांडताना

घट्ट धरून

हात माझा

जपून चालणं

तुलाच जमतं

फक्त

सर्व रस्ते निर्मनुष्य

आजकाल

आणि सोबत

फक्त तुझी.

५.

सभोवताली

बहरावर बहर येत गेले

आणि झडतही गेले

एक तुझा बहर

कधी झडलाच नाही

६.

स्वप्नात सारखी

स्वप्नंच येताहेत

विरूनही जाताहेत

कुठे कुठे

फिरत असतात ही स्वप्नं

आज माझ्या स्वप्नात

उद्या दुसर्‍याच्या

परवा तिसर्‍या कुणाच्या

अलीकडे मात्र

मला भयंकर स्वप्ने पडताहेत

रात्री-अपरात्री

दचकून जागा होत असतो

मी गाढ झोपेतनं

कुणीतरी मला बांधतंय

उचलून नेतंय

आणि बेवारस म्हणून

अनोळखी जागी फेकून देतंय

७.

उलटून जातात दिवस

उलटून जातात रात्री

पुन्हा मागे वळून

पाहताच येत नाही

जगण्यासाठी पुढेच

चालावं लागतं

आयुष्य असतं फारच थोडं

आणि स्वप्नांचं आकाश तर

खूपच उंच असतं

जपून जगावा एकेक दिवस

जपून जगावी एकेक रात्र

८.

कालचे रंग

आता हळूहळू

बदलू लागलेत

अंतर्बाह्य

संयमी झालोय आम्ही

बोधीवृक्षाच्या

शीतल घनदाट सावलीत

हळुवार तृष्णामुक्त होतोय

मी आणि

माझी कविता

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sandesh Dhage <![CDATA[संदेश ढगेच्या सहा कविता]]> http://foundation.virtuereal.com/?p=5152 2022-10-17T13:20:38Z 2022-10-17T13:16:45Z
नुसत्या कटकटीने भारवलाय मॉर्निंग वॉकचा रस्ता

नुसत्या कटकटीने भारवलाय मॉर्निंग वॉकचा रस्ता

लहान मुलाने हट्ट धरलाय

समोरच्या मुलाकडे आहे तशाच सायकलचा

तरुणांच्या गप्पात मुरलोय

लग्नानंतर नकळत विकल्या गेलेल्या

स्वातंत्र्याची गाथा

जाड्या भरड्या बायकांना हवी आहे वंâबर

पूर्वीसारखी

त्यासाठी त्यांची तयारी आहे भसाभसा व्यायामाची

वयस्कांना वाटतोय कालच्या सारखाच आजचा दिवस

सुनेचा मळलेला आवाज

काढून टाकतात ते श्रवणयंत्रातून

या सगळ्यांच्या `क्रॉस कनेक्शन’ने

जिवंत सळसळते प्रसन्न सकाळ

मौनालाही आग्रह केला जातो दरडावून बोलण्याचा

एक अघळपघळ तरुणी मोबाईलवर झापतेय मित्राला

ये शाणे! तु मुझसे बोलता क्यू नहीं

कुछ तो बोल ना यार!

तुझे तेरी बिबी की कसम

 

मला कुणी बनायचे नव्हते

मला कुणी बनायचे नव्हते

पण सगळ्यांनी मिळून मला बनवले

नोकरचा ड्रेस घालून लोटले रंगमंचावर

मी घाबरून पळालो विंगेत धडपडत

तर लोकांनी टाळ्या वाजवल्या

मग कवी बनवण्याचा घाट घातला त्यांनी

उठले अनेक रंग माझ्या मस्तकावर

आणि सोडले मला वा‍Nयावर

मी हवेत डुललो

मनात बोललो

तिथेही झाली गोची

बोलणे माझे होते म्हणून त्यांचे नाही झाले

माझी तयारी पाहून

लवकरच त्यांनी नाद सोडला माझा

नाहीतर लाल चोच रंगवून

पोपट बनवण्याचा त्यांचा प्लॅन होता

 

शाळेत असताना

शाळेत असताना

लाकूडतोड्याची गोष्ट मला आवडायची

मोठेपणी जंगलं राहिली तर

मी ही होईन असाच प्रामाणिक

असे वाटत राही

लाकूडफाट्याची गरज नसताना

मोठेपणी मी गेलो हौसेने जंगलात

झाडावर न चढताच

कुर्‍हाड पाडली विहिरीत

हात जोडून अभिनयाने रडलो

तर देवीने दिली वर आणून

सोन्याची कुर्‍हाड

`थँक्स. ही नाही माझी’ – मी म्हणालो

नाही म्हणालो नसतो तर संपली असती ना गोष्ट

खरं तर माझी सोन्याची कुर्‍हाड होती

पण शाळेतल्या गोष्टीवर अन्याय घेऊ नये म्हणून

मी अप्रामाणिक झालो होतो

वाढत्या वयाबरोबर

 

मित्राला परमेश्वर बनायचे होते

मित्राला परमेश्वर बनायचे होते

तो त्याच्या सरावात उत्तीर्ण झालाही

चांगूलपणाचा सर्व अर्क त्याच्यात मुरला देखील

एके ठिकाणी ज्यादा ताकद वापरल्यामुळे

त्याचे परमेश्वर पद हुकले

म्हणाला, मला सोपी प्रश्नपत्रिका आवडत नाही

हे परमेश्वर बिरमेश्वर होणं फारच सोपं आहे

तरीही पुन्हा एकदा

त्याला परमेश्वर व्हावेसे वाटले

यावेळी त्याने पूर्वीची चूक केली नाही

सरळसरळ माणसाच्या मूळ रूपात भरकटला

आणि पुन्हा एकदा

त्याचे परमेश्वर पद हुकले

 

आधी कुंडीतल्या फुलझाडांनी

आधी कुंडीतल्या फुलझाडांनी

पाणी द्यावं की

आधी कविता लिहावी?

आधी काय सुचलंय

त्याला न्याय द्यायला हवा

असाही एक निर्दयी विचार मनात आला की,

फुलझाडे काही मरणार नाहीत लगेच

पण कविता निसटून जाऊ शकते?

तिच्या जन्माची वेळ हीच तिच्या मृत्यूची असते

किरकोळ वेळ निघून जाण्याच्या

वेळेशीच सुरू आहे हा लढा

एक मात्र नक्की

एखादं फुलझाड ताजे राहण्यासाठी

केलेल्या सत्कर्मानंतर

सुचतील अनेक शब्द भसाभसा

नाहीतर असंही करता येईल

कवितेत घालावे ओढूनताणून पाणी

आणि फुलझाडांना द्यावे सोलीव शब्द

बहरणं तर दोन्ही ठिकाणी आहे

मुळातून टिकलेल्या जिवंतपणावर

 

खूप कठीण असतं रे बाबा कविता

खूप कठीण असतं रे बाबा

आपल्या आवडत्या कवीला

चारचौघात सिद्ध करणं

हे चारचौघं असतात ना

एवंâदरीत मारेकरी कोणत्याही कवीचे

आणि सुदैवाने निघतात आपले मित्र. स्वयंभू.

खूप कठीण असतं रे बाबा

दारूच्या टेबलावर

आपल्या आवडत्या कवीला सिद्ध करणं

दारूच्या टेबलावर सामनेवाल्याचं

ज्ञान उफाळून आलेलं असतं अफाट

बिलाच्या किमतीहून किंचित वरचढ.

मूळव्याधीची जागा सिद्ध करतांना

भलत्या ठिकाणीच चाचपडणं

तशी होते केविलवाणी अवस्था

दारूच्या टेबलवर.

सिद्ध करणारा मूर्ख असतो. नाहीतर अहंकारी. अंध.

चुकीच्या पार्टनरबरोबर रात्र नागवी करतांना

त्यानेच अवमान केलेला असतो

आवडत्या कवीचा.

खूप कठीण असतं रे बाबा एकट्याने झिंगणं

सिद्ध करणार्‍यानेच स्वीकारलेला असतो पराभव

दुकटं अनुभवण्याचा.

मन्या ओकने देखील उंदीर भाड्याने आणले होते कवितेत

दुकटं अनुभवण्यासाठी.

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Swapnil Chavan <![CDATA[स्वप्नील चव्हाणच्या पाच कविता]]> http://foundation.virtuereal.com/?p=5147 2022-10-17T13:15:54Z 2022-10-17T13:11:37Z
उदाहरणार्थ पांडुरंग सांगवीकर

काही माणसं

आपल्या रंध्रारंध्राशी, पेशीपेशींशी

अदृश्य संधान जुळवून

दबा धरून बसलेली असतात

वयाची ऋतू ओलांडून पुढे जाताना

विशिष्ट वळणावर ती झडप घालतात

बेमालूम आपल्यावर

बसतात वेताळासारखी मानगुटीवर

उदाहरणार्थ पांडुरंग सांगवीकर

पांडुरंगा

विसरू म्हटलं तरी

विसरता येत नाही तुझं अस्तित्व

तुझं अस्तित्व म्हणजे तरी काय?

किंवा

मुळात अस्तित्वच म्हणजे काय?

सततच्या अधांतरीपणाचा चिरंतन शाप

भाळीच्या भळभळत्या जखमेसारखा जपणारा तू

एकटेपणाचं थंडगार पातं

रक्तात खोलवर खुपसून घेणारा तू

तुझा दंश शरीरभर पसरत जातो

अधांतरीपणाच्या आंधळ्या रंगभूमीवर

जीवघेण्या एकटेपणाचं नि:शब्द स्वगत

दीर्घ अशा पॉजमध्ये बडबडायला लावतो

सांगवीकरा

तू खरंच वेताळ आहेस बाबा

इतक्या सहजी

तुला पाठीवरून वाहून नेता येणार नाही

आणि खिळखिळ्या झालेल्या भंपक मणक्यानिशी

आम्हांला देखील

राजा विक्रमादित्य होता येणार नाही

त्यामुळे तू असाच लोंबकळत रहा

कोसलाच्या पारंबीवर

मेंदूच्या हजार शकला करून टाकणाNया

तुझ्या वेताळप्रश्नांपासून सुटका करून घेण्यासाठी

आम्ही स्वत:भोवती, स्वत:च्याच लघवीचा

भलामोठा वर्तुळ काढून घेऊ

आणि शून्यपणाच्या त्या सुरक्षित पोकळीत

जन्मभर गर्गरत राहू

आणि कधीकाळी विरंगुळा म्हणून

आमच्या भल्यामोठ्या शून्यमय पोकळीतून

कोसलाच्या पारंबीवरचं तुझं अधांतरी लोंबकळणं

दात विचकत पाहत राहू…

 

बापाचे पाय दरोज आपल्या बेरोजगार पेकाटात

सदतीस वर्षे नितनेमानं

म्युन्सीपाल्टीच्या पायNया झिजवलेले

बापाचे पाय दरोज आपल्या बेरोजगार पेकाटात

इमानेइतबारे वर्षानुवर्षे केलेली गपगुमान खर्डेघाशी

कॉलर व्हाईट ठेवून निवृत्तलोची अहंयुक्त पुâकट मिजास

कॉलर व्हाईट आन् टाईट ठेवण्यात आयशीचाही होता मुकाट वाटा

हयातभर कशाचीच कुरबुर न करणाNया सोशिकपणाचा

हे सपशेल विसरून कोडगा झालेला अस्तो बाप

तंबाखूजन्य थुंकी कसोशीने संभाळत

दिवसातून धादा तोंडावर चंबू उचकाटतो

हे माझं घराए. मी म्हणेल ते नसेल कुबूल तर

चालतं व्हायचं घरातून. तिकडं भोसड्यात जावा.

आयतं गिळून इथं रुबाबण्याचं कारण नाय.

आपले सुशिक्षित बेरोजगार हात कुल्ल्यावर

कान बधिर होऊन ऐकत राह्यतात

आईनं मुकाट गिळून टाकलेला आणखी एक कितवातरी आवंढा

तळवे मळत राह्यतात जालीम चुन्यासकट गायछाप

पोरींना चुंबणार्‍या वयातले ओठ पुâकत राह्यतात

उधारीवर सस्त्या शिगारेटी तिंपाट टपरीआडोशाला उकिडवा बसून

घर आपलं असून आपलं म्हणता येत नाहीच्या जमान्यात

मेंदू घरघरत राह्यतो कायम दगडी घरोट्यासारखा

ज्यातून पीठ पडत राह्यतं भुरभुरत

आपल्या आहिस्ते खल्लास होत चाल्लेल्या उमेदीचं

गांडफाडू डिग्र्यांच्या नावानं मातम करायच्या बेभरोशी दिवसांत

छटाकभर सुखुन एकाच गोष्टीचा वाटत राह्यतो की

एक दिवस आयशीला पाठीशी घालून बापाच्या नजरेसमोर

आपण धटिंगणागत कुल्ले उडवत बापाच्या घराला

त्याच्यासकट कायमचा रामराम ठोकू माज करत

पुन्हा थोबाड पाहणार नायच्या टणक शपथेवर

वर टोला खाले निवाला जिर्वत एकेक दिवस लोटताना

ह्या रांडेच्या एवढ्या बड्या पृथवीवर

वांझोट्या डिग्र्यांना पुरतं गाभण करत

जिथं उरलंसुरलं स्वत्व शाबूत ठेवून गिळतानिजता येईल

एवढं खोपट्याएवढं घर करता येत नाहीए आपल्याला

 

कोलंबस

शहरातील रंगीत खेळण्यांशी

खेळून झाल्यानंतर

कुठलासा अमर्याद थकवा

सारखा टकरा देत राहतो खोलवर

हाडांमधून थेंबाथेंबानं पाझरणारा

अमर्याद थकवा

झाकोळलेला विस्तीर्ण दिशाहीन सागर

आंधळ्या पाण्यात लोटलेल्या तारुवर

मलूलपणे श्वास ऐकत पडून असलेला

एकटा

कोलंबस

 

काळाचा थंडथिजला डोळा

काळाचा थंडथिजला डोळा

पापणीचे केस झडून गेलेला

कधींचा उघडामिट्ट सताड

बुबुळावर शेवाळला तवंग

त्यावरून पाय घसरून पडतो

एका मरणथंड शवागारात थेट

जिथं खच आहे प्रेतांचा ओळीने

चेहरे झाकलेले कधींचे बेवारस

अंगठ्याला नंबर्स कसलेसे सांकेतिक

कसलाच काय अर्थबोध होत नाही

आपण इथं का आलोय प्रयोजनशून्य

मरणाची थंड बधिर शांतता हाडामाजी

शांततेला तडा देऊन आरडावंस वाट्टं

नेमक्या त्याच मोक्याच्या क्षणी जीभ निखळून पडते

जीवाच्या आकांतानं धावत सुटावं वाट्टं

पळण्यापूर्वी निखळून पडलेल्या जिभेला

शोधून खिशात टाकून घेऊन जावं वाट्टं

हात चाचपत राहतात थंडगार लादी सपाट

पण कायकेल्या सापडत नाय मांसल जिव्हा

जिव्हारी तडे जातात जेव्हा उंदीर कुचकुचत

जिभेचा मांसल गोळा बिळात घेऊन पळतो

पाय चिटकलेले घट्ट धावण्यास नाकुबूल

काळाचा थंडथिजला डोळा गिळत जातो सावकाश

आपल्यासकट थंड ओल्या शांत मृत्यूचं शवागार

 

आभाळ सांधायला निघालेला बंड्या

बंड्याचा बाप वारला

दारूत लिव्हर सडवून

मसणात एक सुद्द इसम

शोकसभेच्या सुद्द साच्यात बोल्ला

आज अमुकअमुक परिवारावर

दु:खाचा डोंगर कोसळला आहे

बंड्या माझ्या शेजारीच उभा

न राहवून कानात खुसपुâसला

भेनेचोद डोंगर कोसळलाय

की उरावरचा धोंडा हललाय

शोकसभेचा म्होरक्या इसम सुद्द

तर अमुकअमुक परिवाराचं

साक्षात आभाळ फाटलं आहे

ईश्वर मृतात्म्यास शांती प्रदान करो

आणि कुटुंबीयांस आभाळ सांधण्याचं

बळ देवो… ओमशांतिशांतिशांति…

बंड्या बंड्या चढ वर

शिवून काढ आभाळ

अरे संभाळ संभाळ

बघ फाटली लेका चड्डी ढगाळ

ते फाटल्या आभाळाचं मरू दे

पह्यले ती गांडीवरची चड्डी शीव

नाह्यतर अशानं कॉलेजातल्या पोरींना

यायची लेका तुझी उगाच कीव

शीव शीव पह्यले चड्डी शीव

बंड्या बंड्या ही धर सुई

संभाळ च्युभेल संभाळ

मंग करशील फुकट ऊईऊई

बंड्या टेरेसवरनं मारलाय

तुज्या आयटमचा ब्रा

आयटम्म तुझी फुगलीय टम्म

धर धर वंटास कॅच

आयटम्म येण्याआधी पळ जब्रा

लाव फाटल्या आभाळाला पॅच

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Minakshi Patil <![CDATA[मीनाक्षी पाटीलच्या तीन कविता]]> http://foundation.virtuereal.com/?p=5142 2022-10-17T13:10:49Z 2022-10-17T13:03:47Z
ललदद्य ललबाय

मेल

फिमेल

लेस्बियन

गे

बायसेक्शुअल

ट्रांसजेंडर

क्विअर

दगडधोंडेमाती

सारे चराचर

केव्हढी ही दु:खाची गलबतं

प्रत्येकासाठीच गलबलून येतं

हजारो वर्षांचा थकवा

वाहतोय सार्‍याच्या धमन्यांतून

हरवलीय झोप युगायुगांपासून

खूप खूप गरज आहे एका शांत झोपेची

कदाचित एखादं सुंदर

स्वप्न तरी पडेल

किंवा खडखडीत जाग तरी येईल कायमची!

म्हणूनच

ललगालगागा ललगालगागा

गा ललदद्य ललबाय

गा ललदद्य ललबाय

या अखिल विश्वासाठी…

 

अवकाश माझाय…

पण माझ्या आत जे साठलंय ना

ते अजिबात डिस्टॉर्ट न होता

अगदी तसंच्या तसंच येऊ शकेल का बाहेर?

खरं तर हीच भीती वाटतेय मला

अन् त्यालाही…

तयारी आहे त्याची सोसायची

अनंतकाळचा गर्भावास

अगदीच मरावं लागलं एवâत्र

तर तेही चालेल

पण मला वâरायची नाहीय घाई जन्मायची

खरं तर मस्तच वाटतंय

या पाण्यात तरंगायला

हे पाणी माझंय

हा अवकाश माझाय

मला माझ्याचसारखं दुसरं वुâणी असेल

असं वाटत नाहीय

मग बाहेर येण्यात काय हशिल?

वुâणाशी बोलायची मला

इच्छाच होत नाहीय

कारण माझंच गाणं अजून संपत नाहीय

माझ्या गाण्याचे शब्द

ऐकायचे असतील तुला

तर

तुला `मी’ व्हावं लागेल

पण तू `मी’ झाल्यावर

मग वâोण उरेल?

`तुझंमाझं’ वâी `माझंतुझं’ गाणं उरेल?

गाणं तरी खरंच असतं का तुझं किंवा माझं?

ते येतं कुठून आणि जातं कुठे?

हे तरी कळलंय कातुला?

तसं तर ते मलाही नाही कळलेलं…

आकाशगंगेमध्ये आहेत म्हणे अनेक आकाशगंगा

त्यांना तरी ते माहितीय का?

गर्भाशयात असतात अनेक गर्भाशयं

अन् गर्भाशयात असतात अनेक गर्भ

अन् त्या गर्भांना असतात अनेक गर्भाशयं

म्हणूनच मस्तच वाटतंय

या पाण्यात तरंगायला

हे पाणी माझंय

हा अवकाश माझाय….

 

आपुले मरण मी…

मी जन्माला आली तीच मेलेली

मी जन्मताच आई मेली

मेली म्हणजे तिने ठरवलं की

ती कायमच माझ्यासाठी मेलेली असेल

बाप तर फक्त बीज वाहक

तो कधी जिवंत होता हे असेल

फक्त मेलेल्या आईलाच माहीत

माझ्या जन्माअगोदर जन्मलेल्या

भावाबहिणींना याबद्दल विचारावं म्हटलं

तर तेही आले स्वत:च्याच श्राद्धाचं जेवायला

हे सगळं काय आहे म्हटलं

विचारावं लोकांना

तर कळलं

माझ्या मरण सोहोळ्याच्या आनंदानं

सार्‍या  गावानंच केलीय

सामूहिकआत्महत्या

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Alhad Bhavsar <![CDATA[आल्हाद भावसारच्या पाच कविता]]> http://foundation.virtuereal.com/?p=5137 2022-10-17T13:02:57Z 2022-10-17T13:00:08Z

१.

अरे मला माझ्या पावलांचा आवाज

सहज ऐकू येतोय

इव्हन टाचण्या पडण्याचा ही

आवाज

माझ्या अंतर्मनातला

तर अगदी स्वच्छ, अगदी स्पष्ट

इतना सन्नाटा क्युं है भाई?

मुंग्यांनी मेरु पर्वत तर गिळला नाही ना?

अरबी समुद्राला वडवानलने जिवंत जाळले तर नाही ना?

अशा शैलीदार सवालांच्या लडीतूनही हाती लागत नाहीये उत्तर

की आताशा

पेâसबुकवर

कुणी पेरलेले विचार

तरारून आलेयं

की व्हॉट्सअ‍ॅपवर ग्रुपौग्रुपी

सदसद्विवेकबुद्धीच्या तेजाची झगमगझगमगझगमगझगमग

की आख्ख्या सोशल मीडियाचं

मी कात टाकली मी कात टाकली

वगैरे गाणं टॉपवर जाऊन पोहचलंय

की आणिक काही

की आणिक काही

आणिकं

तसंलंही काहीही नसेल तर

तसंलंही काहीच नसेल तर

आत्मज्ञानाचा

हा दुर्लक्षित दुर्मीळ माहौल

खतरनाक गोष्टयं भौ

आणि

तो प्राणपणाने जपणं

हे तर मरणाहूनि सुंदरहे भौ

आता कुठल्याही

आवाजानं शब्दानं

या स्वर्गीय

शांततेवर

ओरखडाउमटताकामानये

इतकंचनाहीतरहेकवितासदृष्यशब्दओळी

अलगदअलगदनाहीश्याकरणेहेपहिलेकामहेसुखसांभाळण्याच्यामार्गाव्रलिल

भौकळंतयंकाकाई?

 

२.

दिक्काला पलीकडे पायची गरज नस्ते

नजर जिवंत पायजे आपल्या आसपासच

दु:खाचे डोंगर उभे दिसता

कसलं अध्यात्म पचवून

ही माणसं

जीवघेण्या दु:खात

सहज जगून जातात

त्यांच्या दु:खाला अश्रू नसतात

त्यांच्या दु:खाला शब्दही नसतात

आणि इथे तर चिमूटभर दु:खाचे प्रदेश

माणसं पिढ्यान्पिढ्या पालथे घालत

सभासंमेलनातून टाळ्या घेत

पुस्तकांतून अमर होऊ पाहता

 

दारंखिडक्या घट्ट बंद करून घेतले आतून दोन्ही अडसर घालून

वर्तमानपत्रं कधीच बंद केले होते

केबल काढून पेâवूâन द्यायला वर्षे लोटली

सिमबिम चेचूनचेचून गतप्राण केला अ‍ॅन्ड्रॉइड

तेव्हा कुठे हायसे वाटायला लागले

शेजार्‍याबद्दलचा संशय सायबर पार,

गेला विरून

ना धुरळा ना आवाज जराही

जरी गडगडल्या परस्परांतील अदृष्य भिंती

मला खूपच हायसे वाटायला लागले

प्रार्थनेच्या सुरात कुणीतरी प्रतिज्ञा म्हणायला लागले

मला खरोखरच हायसे वाटायला लागले

आपल्यातले प्रेम, आपल्यातील करुणा,

आपली सनातन अहिंसा हेच सत्य आहे

बाकी सर्व मतपेटीत बंदिस्त आहे..

 

स्वत: त परतीचे रस्ते ट्वेंटीफोरबायसेव्हन्स्

खुले असतात म्हणून

सगळेच मोरू

परतून येतात असेई नै

खर्‍या अध्यात्म्याची गोष्ट

कुण्या बाबाबुवाकडे नसतेच

ती अस्ते आपल्याच

कडीकुलूपात बंद

न किल्ली कनवटीला

भाई मत टटोल बाजूबंद

सुन

उड जायेगा हंस अकेला

लई स्वस्तात सांगून गेलेत रे साधुसंत

 

हा तीव्र डेसिबलचा कोलाहल

खणखणीत धारदार

यादवीच्या दुदंभी

हिंसक ललकारी

भयकारी भयकारी

भाषेतून भय पेरत

काळ सुसाटलायं चौखूर

आसमंतभर धूळंचधूळ

डोळे उघडे ठेव

चष्मा पुसून घे

सत्य आणि ज्ञान

प्रेम आणि करुणा

शब्द अवघडयेत

शिकून घे!

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Sachin Ketkar <![CDATA[सचिन केतकरच्या सात कविता]]> http://foundation.virtuereal.com/?p=5131 2022-10-17T12:59:03Z 2022-10-17T12:51:11Z
डॉल्फिन परतले

डॉल्फिन परतले व्हेनिसच्या कालव्यात

मी काल रात्री कल्कीला पहिला

रेड झोनमधून ग्रीन झोनमध्ये शिरताना

मास्क घालून घोड्यावर

एका हातात तलवार दुसर्‍यात सॅनिटाईझर

त्याच्या घोड्यानेही मास्क घातलेला

डॉल्फिन परतले व्हेनिसच्या कालव्यात

पण एखाद वेळेस लॉकडाऊनही संपेल पण

माझया मनातचा क्वॉरनटायीन नाही संपणार कधीच

मी माझ्या कोरड्या कालव्यात वाट बघत बसतो

पण डॉल्फिन कधीच नाही परतणार माझ्या भकास कालव्यात

डॉल्फिन परतले व्हेनिसच्या कालव्यात

आणि माझ्या डोळ्यांसमोर मी पाहिला

मास्क युगापूर्वीचा समाज कालबाह्य होताना

डॉल्फिन परतले व्हेनिसच्या कालव्यात

आणि मी स्वप्नात पाहतो

चालू असलेल्या झूम मीटिंगमध्ये

माझेच शेकडो चेहरे

मास्क घातलेले

मी पाहतोय हाताच्या बोटांचे डॉल्फिन होताना

त्यांच्या तोंडावरही कोणीतरी मास्क बांधलेत

ते आता कधीच गाणार नाहीत गाणी

माद्यांना रिझवण्यासाठी

की बाळांना झोपवण्यासाठी

डॉल्फिन परतलेत

पण कालवे आता तेच राहिले नाहीत

 

Singularity आणि ऊर्ध्वमूल अश्वत्त

लाकडी टॅब्लेवर

माझी लाकडी बोट होऊन उतरतात

उलट्या वडाच्या

डीप न्यूरल पारिम्ब्या

माझ्याच मनात लॉग इन करण्यापूर्वी

माझंच मन मला capcha देतं

पण मी बॉट नाही हे मी शाबित करू शकत नाही

त्याची पानं छंद आहेत ना

त्याच्या ह्या virtual पानातून सर सर वाहतो

सत्त्व रज तमचे ट्युरिंग वारे

यंत्र आणि माझं विशिष्ट अद्वैत

मी बॉट आहे आणि बॉट मी

हे शाम्बद्वय सिद्ध आहे

आता फक्त निरंजन पाहणं उरत

अधिक देखण्याच्या पंâदात कशाला पडता राव

ह्याला कोणीच हॅक करू शकत नाही

 

नाश्ता रेडीय

माझं प्रेम

पांढर्‍या शुभ्र रिकाम्या कप बशीसारखं

मुकाट्यानं टेबलावर बसलंय

मी माझ्या हृदयाचं अन्डं फोडून

ओततो कपात सोनेरी रस

आणि एक करप्ट सूर्य

रिकाम्या कपात

ब्रेडच्या स्लाइसमध्ये राहून गेलेत

माझे हॅक झालेले डोळे

दुपारी वेळ मिळाल्यावर त्यांचे पासवर्ड बदल

 

सचिन म्हणे

साधो यह मुर्दो का गाव

असं कबीर म्हणाला होता

पानी केरा बुद् बुदा

असु मानुस की जात

असं ही तो म्हणाला होता

हिंदूंकी हिंदवाई देखी

तुर्वâन की तुर्काइ

असं बरंच काही तो म्हणाला होता

मी म्हणालो

आपल्याला कायपन फरक पडत नाय भो

हम चुतिये थे

और चुतीये ही रहेंगे

 

निळी गिटार वाजवणारा माणूस

(वोलेस स्टिव्हनससाठी)

एके रात्री

एलसीडी आकाशात

हँग झालेल्या

वितळणार्‍या चंद्र्कोरी खाली

पानांच्या जागी डोळे असलेल्या झाडाखाली

उभा होतो

हातात

माझ्या आत्म्याची

निळी गिटार

माझी बोटं असतात

गिटारच्या तारा

माझ्या पुढे एक

न वाहणारी नदी

त्यात लॉक झालेलं (lock)

एक चंद्रबिंब

ह्या चंद्रालाच ऐकवतो

माझी घारी ब्लोन्ड गाणी

आणि काळाचं एक काळं कुत्र

इतकेच माझे श्रोते

मी विझलेल्या अमावास्येचा प्राणी

सगळ्या बुबुळांवर साठलेल्या धुळीच्या थराना

धुणारं पाणी

म्हणजेच

माझ्या निळ्या गिटारवर

गायलेली गाणी

 

सनी लिओनी आणि लॉरेन्झचं फुलपाखरू

सहाराच्या वाळवंटात कुठेतरी

लॉरेन्झच्या फुलपाखराने पंख फडफडवत यामुळे

चीनमध्ये आलेल्या चक्री वादळासारखी तू

येऊन धडकलीस आमच्या हँग झालेल्या

जागतिक खेड्यात

थर्मोडायनामिकसच्या सगळ्याच नियमांपलीकडे

तुझं साम्राज्य

ेंट्रोपीपेक्षाही सुंदर तू

मृत्यूसारखी

आणि माहितीसारखी तू अनप्रेडिक्टएबल इररिव्हर्सेबल

जिथे वासना होते रिडनडंट

जिथे काया असते व्हच्र्युअलिटी

अन् आत्मा हा विठ्ठलाची बायनरी अनअवअ‍ॅबिलिटी

आणि आता मन कुठे इतरस्र धावेलच कसं

तू जरी असशील मृगजलाची गंगोत्री डिजिटल

आणि संतुलन हरवलेलं असेल

माझं स्टोकॅस्टीक मन

पण तुझ्या बाहेरच

हे कोरडं कोडगं जग स्ट्रेनज अट्रॅक्टर

पुन्हा आणून सोडत मला

जिथे मी पूर्वी होतो

आयुष्य असं रिकरसिव असतं

मृत्यू ते मृत्यू मधली जागा असते

फ्रेकटल

 

मागच्या दोन वर्षांसाठी एक चारोळी

धक्कादायकविश्वासचबसतनाहीअतिशयदु:खदबातमी

विनम्रअभिवादनभावपूर्णश्रद्धांजलीओमशांतीअरेरे

धक्कादायकविश्वासचबसतनाहीअतिशयदु:खदबातमी

विनम्रअभिवादनभावपूर्णश्रद्धांजलीओमशांतीअरेरे

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